” आ जो भई! सब! खीर पूड़ी बने सैं..! अप-आपणी खाओ!”

” तू जागी के! रावण देखन..?”।

” हाँ! देख लेंगें! शाम को.. जैसा भी होगा!”।

हरियाणा के माहौल में विजयदशमी मनाने का पहला अवसर मिला था.. अब हमारा माहौल तो हरियाणवी न था.. और न ही विवाह से पहले हम कभी रावण वाले दिन यानी के विजयदशमी पर इतने उत्तेजित हुआ करते थे।

हाँ! दशहरा मैदान में जाकर जलेबी-शलेबी का लुत्फ़ ज़रूर उठा लिया करते थे.. पर रावण जलने तक कौन रुकता..! बस! खा-पीकर वापिस हो लिया करते थे। रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतलों पर भी ज़्यादा ध्यान न जाया करता था।

भोपाल के हरियाणवी परिवार में वैवाहिक जीकन की शुरुआत हुई थी..  विजयदशमी पर ससुराल का अनोखा ही रंग देखने को मिला था.. रावण वाले दिन खासी ख़ुशी का माहौल हो जाया करता था.. पूरे घर में..! 

सासू-माँ मेज़ पकवानों से सजा दिया करतीं थीं.. और हम बहुओं को अच्छे से सज-धज कर तैयार होने के आदेश हो जाते थे। और कमाल तो इस बात का था.. कि सभी सदस्य शाम के समय पकवानों का आनंद ले.. रावण देखने ज़रूर जाया करते।

सच! बुराई पर अच्छाई की विजय वाला दिन.. यानी के विजयदशमी पर भोपाल शहर में जगह-जगह रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले लगे होते थे..  दशहरा मैदानों को बहुत ही अच्छे ढँग से सजाया जाता था.. और रावण को जलता देखने की भीड़ भी खूब ही होती थी। विजयदशमी यहाँ इस छोटे शहर में इतने अच्छे ढँग और धूमधाम से मनाई जाती थी.. कि अब हमारा भी मन हर साल रावण के आने का इंतज़ार करने लगा था.. और यहाँ की विजयदशमी की धूम ने हमें हमारा दिल्ली शहर भुला सा दिया था।

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