अरुण वरुण के स्कूल जाने के बाद घर में अपार शांति भरी थी।
आज पहला मौका था – शायद वर्षों के बाद जब कालू और श्यामल साथ-साथ दिन के उजालों में मिल रहे थे। एक उत्सव जैसा लग रहा था – दोनों को। आज उन दोनों को सेंट मेरी एंड जॉन्स स्कूल में इंटरव्यू देने जाना था। अरुण वरुण का एडमीशन इसके बाद ही होना था।
“ठीक किया मूंछें छोटी कर लीं!” श्यामल ने प्रसन्न हो कर कहा था। “उन बड़ी-बड़ी मूँछों में बिलकुल गंवार लगते हो।”
कालू ने मुग्ध भाव से श्यामल को देखा था। श्यामल ब्लू ब्यूटी में बनाव श्रृंगार करा कर लौटी थी। निखर आई थी श्यामल की काया। कालू ने भी नए कुर्ते पाजामे पहने थे। पुरानी चप्पलें उतार फेंकी थीं। उसने नए जूतों का जोड़ा जीवन में पहली बार खरीदा था।
भोंदू रेहड़ी खींच कर ले गया था – अकेला। राम चरन ने आ कर सब संभाल लिया था। आज कालू को लगा था कि वो असली मायनों में मालिक था।
“देखना स्कूल तुम!” श्यामल ने मुड़ कर कालू को निहारा था। कालू जंच रहा था। “मैं तो देखते ही बावली हो उठी थी।” श्यामल बताने लगी थी। “जब अरुण वरुण ..” श्यामल ने ठहर कर कालू की प्रतिक्रिया पढ़ी थी।
“कलक्टर बन जाएंगे ..!” कालू ने वाक्य पूरा किया था। “तब हमारी भी जिंदगी संभल जाएगी श्यामल!”
तभी अचानक फोन की घंटी बजी थी।
“हम मंगी बोल रही हैं।” श्यामल फोन सुन रही थी।
“हां! हां-हां – मंगी! हमें याद है। हम लोग तैयार हैं। आ रहे हैं ..” श्यामल एक ही सांस में कह गई थी।
“नहीं ..! आना नहीं!” मंगी ने दबी जुबान में कहा था। “माना नहीं हैडली!” वह रुआंसी हो आई थी। “हमने तो ..” मंगी की आवाज टूट गई थी।
“क्यों ..? क्या हुआ ..” श्यामल पूछ रही थी लेकिन फोन कट गया था।
कालू ने सब कुछ सुन लिया था।
मन तो हुआ था कालू का कि कहीं पछाड़ खा कर गिर पड़े लेकिन उसे कांपती मिमियाती श्यामल का ध्यान हो आया था। उसने आगे बढ़ कर श्यामल को बांहों में सहेज लिया था। बहुत देर तक दोनों चुपचाप एकाकार हुए खड़े रहे थे। दोनों की जुबान टूट गई थी। शब्द थे कि बन कर ही न दे रहे थे।
“देश पर राज अंग्रेजों का ही रहेगा।” कालू आहिस्ता से बोला था। श्यामल ने भी उसे रीती-रीती निगाहों से देखा था। “ये लोग चतुर हैं। हम लोगन को कभी बराबरी न देंगे।” पलकें भीग आई थीं कालू की।
अरुण वरुण के स्कूल से आने तक घर करुण शांति में गोते खाता रहा था।
कालू का मन ही न हुआ था कि परवतिया मोड़ पर जा कर देखे कि उसका काम कैसा चल रहा था। आज तो वह सब कुछ हार जाना चाहता था। आज उसकी काया में अजीब किस्म की आग भरी थी। शायद वही आग थी जो कभी देश भक्तों के सीने में सुलगी होगी। लेकिन कालू के पास कोई अलग राह न थी – यहां से जाने की!
भोंदू लौटा था। घर के खाने की रेहड़ी को देख कालू तनिक पसीज आया था। शायद अरुण वरुण की तकदीर में भी यही लिखी थी – कालू एक पल में सोच कर दंग रह गया था।
राम चरन ने पैसे के हिसाब की पर्ची बना कर भेजी थी। पाई-पाई का हिसाब था। कालू की हिलकियां बंध गई थीं।
“गरीब ही गरीब का हो सकता है।” कालू श्यामल को समझाता रहा था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड