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राम चरन भाग एक सौ चौबीस

Ram charan

उस रात के अवसान में निपट अकेला मुनीर खान जलाल संघमित्रा के ख्वाबों में खाेया था।

मंदिर बंद था। गरमी का मौसम था। रात बहुत बीत गई थी। लेकिन राम चरन की आंखों में न तो नींद थी और न उदासी थी। निरी निराशा ही थी जो उसे सता रही थी। घर जाने का उसका मन ही न हो रहा था। एक अजीब सी बेकली भरी थी – पूरे बदन में।

सहसा उसने देखा था कि सलमा और नारंग एक दूसरे से सांपों की तरह निर्वसन हो लिपटे थे और एक दूसरे से प्यार बांट रहे थे। फिर न जाने कैसे वह संघमित्रा को आगोश में लिए-लिए हवा पर तैर आया था। उसने महसूसा था कि वो दोनों भी निर्वसन थे। संघमित्रा आ अंग शौष्ठव बेजोड़ था। वह ललचाई आंखों से उसे अपलक देखे जा रहा था। फिर न जाने कैसे नारंग और सलमा की तरह वह दोनों भी एक दूसरे से लिपट गए थे। संघमित्रा की मधुर आवाज उसे जगाती रही थी। वह न जाने कैसे-कैसे प्रेम पगे संवाद कहती रही थी और ..

मंदिर के बाहर बाउंडरी की ओर पतोहरी चटकी थी। उसने सारी शांति भंग कर दी थी। राम चरन को लगा था बाहर वहां कुछ था। वह दबे पांव बाहर देखना चाहता था कि क्या कोई खतरा तो न था? लेकिन फिर से प्रशांत खामोशी लौट आई थी। अब राम चरन ने बावली को देखा था। उसे अपना वह अतीत याद हो आया था जब वह जहाज के डैक से समुंदर में डाइव लगाता था और गहरे पानी में घुसता ही चला जाता था। अचानक उसने कपड़े खोले थे। गरमियों का मौसम तो था ही । बावली का पानी बहुत ठंडा रहता था। राम चरन को बावड़ी में गोता लगा कर एक अनमोल आनंद की उम्मीद थी।

वह सर के आगे हाथ पसारे बावड़ी के शीतल जल में डूबता ही जा रहा था – चलता ही जा रहा था जैसे मानो आज वो समुंदर की गहराई को छू कर ही दम लेगा। तभी उसकी उंगलियों ने बावली के पेंदे को छूआ था। तुरंत ही एक भयंकर चूस पैदा हुई थी और उसने राम चरन को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। फिर बावली का पेंदा फटा था और राम चरन उसमें समा गया था। अब वह एक विशाल प्रांगण में आ खड़ा हुआ था। उसके साथ पानी की एक बूंद तक न आई थी। प्रांगण एक दूधिया उजास से जगमग था। राम चरन नंगा था। उसने आंखें पसार कर देखा तो पाया था कि वह पूरा का पूरा प्रांगण हीरे जवाहरातों से भरे सुवर्ण कलशों से नाक तक भरा था। बीच में एक मयूर सिंहासन – जो रत्न जड़ित था – विराजमान था। ढालें, तलवारें और अन्य अस्त्र शस्त्र दीवारों पर सजे थे। वो भी रत्न जड़ित थे।

एकाएक राम चरन को एहसास हुआ था कि वहां बाहर जाने का कोई रास्ता ही न था। वह घबरा गया था। उसे लगा था कि अब वो बाकी की उम्र यहीं बिताएगा और ..

“मौत को तुम्हें मारना ही होता तो इस ढोलू शिव के खजाने में क्यों लाती?” राम चरन ने ठहर कर सोचा था। “ये जिंदगी है – मुनीर खान जलाल जो तुम्हें कुछ और दे देना चाहती है।” राम चरन का अंतर बोला था। “चाह के साथ ही तो राह जुड़ी है।” एक राय लौटी थी। “प्रयत्न करो। तभी तो कुछ हो पाएगा।”

राम चरन ने दोनों हथेलियों से दीवारों को छू-छू कर दबाया था। भीतर की ओर धकेला था और प्रयत्न किया था कि कहीं कोई रास्ता मिले। तभी घर्र की आवाज हुई थी और एक दरवाजा खुला था। वह बाहर जाने का रास्ता था। राम चरन ने इस बार ढोलू शिव को धन्यवाद कहा था और लपक कर वह खुले रास्ते में दाखिल हुआ था। तभी दरवाजा भीतर से बंद हो गया था।

संकरी सीढ़ियां चढ़ने में राम चरन को बड़ा वक्त लगा था। ऊपर आते-आते उसकी सांस फूल गई थी। जैसे ही उसने अगली सीढ़ी पर पैर रक्खा था वैसे ही बाहर की ओर दरवाजा खुला था। राम चरन बाहर आया था। उसने आश्चर्य चकित आंखों से देखा था कि ढोलू शिव की प्रतिमा दो भागों में बंटी खड़ी थी और दरवाजा बनी हुई थी। उसके बाहर आते ही प्रतिमा फिर से एक घर्राटे के साथ एकाकार हो गई थी और दरवाजा बंद हो गया था।

नंगा – भ्रमित – बेहोश सा राम चरन कई पलों तक यों ही खड़ा रहा था।

उसने कपड़े पहने थे। कार स्टार्ट की थी। घर पहुंचा था। इंतजार में सूखता खाना उसने छूआ तक न था। वह सीधा बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह गिरा था और गहन निद्रा में सो रहा था। उस रात उसका कोई ख्वाब भी न लौटा था। शरीर थका मादा गहरी नींद में सोता ही रहा था।

“चन्नी!” सुंदरी को सदमा सा लगा था। अभी तक सोते राम चरन को देख वह चकित थी। अब वह उसे जगा रही थी। “चन्नी डार्लिंग!” सुंदरी ने उसे मधुर आवाज में पुकारा था। “क्या हुआ ..?” सुंदरी पूछ रही थी। “खाना भी पड़ा है।” सुंदरी हैरान थी।

राम चरन ने आहिस्ता-आहिस्ता आंखें खोली थीं। एक बारगी तो वह सुंदरी को पहचान भी न पाया था। फिर करवट बदलते हुए उसने कहा था – मुझे सोने दो सुंदा!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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