रात का शांत शहर उन्हें चिताओं से पटा शमशान लगता है | उन का दिमाग अब आकाश-पाताल तक खुल गया है | बाहर का सब तो बंद है लेकिन न जाने कैसे उन का भीतर टुकड़े-टुकड़े हो गया है ? एक शुद्ध पवित्र-सा अँधेरा ही है जो उन के भीतर आज उमड़ आया है | उन्हें आश्चर्य होता है कि – दस साल से पूंजी जैसा वक्त लगाकर भी वह दिन के उजाले में जो न देख पाईं – वह आज उन्होंने अँधेरे में ही एक लम्हे में देख लिया है | मन टीस रहा है | एक करुण वेदना और निरा निर्मोह उन के जहन में उग आया है | पश्याताप से उगा दुःख आज मन को सेक रहा है |
बाहर से आया प्रशांत और जिग्यासा-विहीन अबोध उन के रोम-रोम में व्याप्त होता चला जाता है | वेदना का दिया यह सुख तो उन्होंने आज पहली बार ही चखा है | होने वाले सवेरे का संताप भी आज उन्हें पहली ही बार डरा रहा है | वह महसूस रहीं हैं कि – अचानक ही उन का मैला हो गया मन – आज साफ़ होता चला जा रहा है | पक्ष-विपक्ष का जुआ डाल अब वह निष्पक्ष राय देने के लिए तैयार होती जा रहीं हैं | आज उन कि समझ में नरेन्द्र का पक्ष भी साफ़-साफ़ आ रहा है |
वह चिंतित हो उठती हैं | लता के तलाक कि बात सोच वह फिर से तिलमिला उठीं हैं | सब का सब गड्ड-मड्ड हो गया ! घर में आया एक पुरुष लौट गया ! नरेन्द्र अब क्यूँ आएगा ? किस के लिए लौटेगा – वह ?
उन का मन होता है कि बिस्तर से उठें और आवाज दें, ‘लौट आओ, नरेन्द्र | गलती तो मेरी थी | मेरे बेटे, तुम्हारी गुनाहगार तो में हूँ | लता तो निरी निर्दोष है | उसने अपना मरना-जीना तो कभी सोचा ही नहीं | वह तो माँ-बाप के लिए ही झगडती रही, नादान |’
उपन्यास अंश – सुलभा का न्याय