बचपन के खेल और सोच भी अजीब हुआ करते थे.. लेंस लेकर कागज़ जलाना या फ़िर दो पत्थरों को आपस में घिस चिंगारी निकालना..
वो सफ़ेद से सुन्दर बड़े-बड़े से पत्थर जिन्हें हम आपस में बुरी तरह से रगड़ कर चिंगारी निकाला करते थे..
उन्हें हमनें चकमक पत्थर का नाम दे रखा था।
अब बात बहुत पुरानी है.. बहुत बचपन था.. ये तो हमें अच्छे से याद नहीं.. कि वो हमारे चकमक पत्थर आते कहाँ से थे.. या हमनें उनका कलेक्शन किस तरह से करा हुआ था।
हाँ! पर एक बस्ते में ढ़ेर सारे बड़े-बड़े सफ़ेद सुन्दर चकमक पत्थर इकट्ठे कर रखे थे.. हमनें।
इन चकमक पत्थरों को इकट्ठे करने का मकसद सिर्फ़ एक ही था.. अँधेरे से में जाकर इनको आपस में ज़ोर से रगड़ते.. और फ़िर जो चिंगारी निकला करती थी.. वो ही हमारा अचीवमेंट हुआ करता था।
इन चकमक पत्थरों को अजीब सा मुहँ बनाकर पूरे कंसंट्रेशन के साथ रगड़ने में अपने आप को हम किसी साइंटिस्ट से कम न समझा करते थे।
उन चकमक पत्थरों को एकसाथ रगड़ना.. उसमें से पीले से रंग की चिंगारी का निकलना.. पता नही कौन सी ख़ुशी का अहसास हुआ करती थी..
पर जो भी थी.. जैसी भी थी.. उस अँधेरे सी जगह में उन चकमक पत्थरों के संग.. वो ख़ुशी अनमोल थी।