घंसू मेरा लंगोटिया यार था!
हमारा ग्वारियाओं का एक गिरोह था। हमारा पेशा चरवाहों का था। हम अलसुबह घर से चौपे चराने निकलते थे। नंगे पैर, सर पर गमछा बांधे और कोई अल्लम खल्लम घुट्टन्ना या सुतन्ना पहने, कमीज कुर्ता कुछ भी लटकाए और हाथ में सोटा लिए हम निकल पड़ते। चौपों को एक खुले मैदान में इकठ्ठा करते और फिर जंगल के लिए हांक देते। रास्ते में पड़ती नदिया को पार करने के लिए कपड़ों को सर पर बांध किसी भी गाय या भैंस की पूंछ पकड़ हम पार हो जाते। हम एक हुजूम की तरह आगे बढ़ते और जाकर जंगल में समा जाते!
और जंगल भी क्या था – सुखों की आजादियां और उम्मीदों की खान था!
“ले! पीलू खा, दिप्पो!” घंसू मुझे लाढ़ से पुकारता।
“जीभ फट जाती है यार!” मैं शिकायत करता।
“पेट साफ हो जाता है, प्यारे!” घंसू हंस कर बताता। “इस जैसी तो दवा नहीं!” उसका मत था।
और हॉं! हमारे इस जंगल की मेवाएं ही – पीलू, पेंचू, बेर और खंडयार थे। इन पेड़ों के अलावा कदम खंडी भी थी। जब कदम बौराते थे तो एक गजब की महकार पूरे वायुमंडल में भर जाती थी। कदम खंडी के बीचों बीच एक विशाल जोहड़ भी था। दोपहर को हमारा पूरा गिरोह कदम खंडी में आ जमा होता। भेंसें पानी में जा बैठती तो गाएं सूखे में बैठ सुस्ताती और जुगाली करतीं। हम कदम की शीतल छांह में बैठ खाना खाते और फिर काई डंडा या खो-खो का खेल खेलते।
आनंद ही आनंद था। एक सुंदर खुली-खिली जिंदगी थी जिसे हम और हमारे चौपे आपस में बांट लेते!
“डूंड़ी, खोये!” कभी-कभी घुसू चीखता। वह देख लेता कि डूंड़ी भेंस आँख बचा कर खेत खाने जा रही है – तो उसे हिदायत देता ‘बगद’। घंसू का आदेश जाता तो भेंस लौट आती।
आज्ञा न मानने पर मार जो पड़ती थी! घंसू बहुत मारता था – उन चौपों को हुक्म अदूली करते और खेतों में जा चरते!
एक पूरी व्यवस्था थी हम सब के लिए। चिरंजी हम सब का प्रधान ग्वारिया था। उसके बाद माधो और महीपाल थे। फिर तो था ही गिरोह और उसमें लंका भी शामिल थी। लंका चंदन मिसिर की तीसरी और सबसे छोटी बेटी थी। लेकिन थी बहुत खोटी। लड़ाक थी लंका। छोटी-मोटी बात पर ही सोटा छोड़ देती थी। और हॉं लंका मुझे बेहद प्यार करती थी और अपना सगा छोटा भाई मानती थी। महीपाल एक आंख से काना था तो माधो लंगड़ा था। चिरंजी भुजंग काला था और उसकी स्याह काली झब्बेदार मूंछों का लोग लोहा मानते थे!
महीपाल अच्छे अलगोजे बजाता था। जब सावन की घटाए घिर आती थीं और रिमझिम बादल बरसता था तो महीपाल के अलगोजों पर गूंजती मस्त मेघ मल्हार की धुन हम सबके मन मोह लेती थी। घ्ंसू अच्छा गाता था और खासकर उसे ब्रज के रसिए भाते थे। मुझे भी कृष्ण और राधा के प्रसंग रोचक लगते थे और मैं घंसू से उन्हें सुनता ही रहता था और उन लीलाओं को जो बाल कृष्ण ने भी गाएं चराते वक्त की थीं – और अब वो अमर लीलाएं हम सब के लिए धरोहरें थी!
“नौ लख गाए नंद बाबा की, नित उठ माखन होए!” घंसू गा रहा था। “बरसाने की सुघड़ गुजरिया लाज न आवै तोए?” उसने तान तोड़ी थी। “रे माखन की चोरी छोड़ सांवरे मैं समझाए रइ तोए!” मैं आनंद विभेर होकर सुन रहा था।
“इसने मुझे छेड़ा है!” अचानक मैंने लंका की आवाज सुनी थी। मैंने लंका को गौर से देखा था। उसकी आंखें सजल थीं। मैं हिल गया था।
“किसने ..?” मैंने पूछा था।
“घंसू ने! तुम्हारे इस यार ने!” लंका का स्वर कांप-कांप उठा था।
घंसू ने गाना बंद कर दिया था। उसका चेहरा काला पड़ गया था। वह अब मुझे अपलक देख रहा था। मुझपर क्रोध तारी होने लगा था। मुझे इस तरह की गलत हरकते कतई पसंद न थीं। घंसू भी जानता तो था लेकिन ..
“क्यों बे ..?” मैं गरजा था।
“तू है कौन ..?” घंसू झपटा था।
लेकिन मैंने घंसू की टांग पर सोटे से वार कर दिया था। फिर मैंने उसे खूब पीटा था। किसी ने भी घंसू को नहीं बचाया था। लंका खूब खुश हुई थी – मैं उसका भाई जो था!
मार खाने के बाद घंसू मुझे प्रश्नवाचक निगाहों से घूरता रहा था!
उसके प्रश्न थे – वो प्रश्न जिनके उत्तर मेरे पास न थे! ये किये अहसान थे घंसू के जिन्हें मैं भूला कब था? घंसू मुझसे थोड़ा बड़ा था। उसने ग्वारई मुझसे पहले सीख ली थी। वह एक निपुण ग्वारिया था!
“याद है, दिप्पो! तू बैठा-बैठा रो रहा था .. तेरे पैर गोखरू के कांटों से लहू-लुहान थे और तू ..? मैंने ही तुझे सिखाया था गोखरुओं पर पैर घिस कर चलना! याद है – कैसे मैंने तुझे बताया था जवासों के बीच से निकलना और मैंने ही ..”
“यार वो क्या है कि मैं ..” मैं अब घंसू को मना लेना चाहता था।
“न-न गलती है मेरी! मैं .. मैं ..” घंसू की आंखें सजल थीं। “मैं .. मानता हूँ। बहुत अच्छा है तू तभी तो मैं ..”
और हम फिर से लंगोटिया यार बन गये थे।
“तेरी रोटी नहीं आई कृपाल!” महीपाल ने आते ही घोषणा की थी। हम सब कदम खंडी में जमा थे। खाना आ चुका था। सब खाने पर बैठ गये थे। लेकिन मैं .. अकेला “सब के साथ बांट खा!” महीपाल ने मुझे आदेश दिया था।
“आ दिप्पो आ! दोनों बांट खाते हैं!” घंसू ने मुझे बुलाया था।
लेकिन मैं जड़वत खड़ा रहा था। मैं न हिल रहा था न डुल रहा था। मैं अब अपनी मॉं यशोदा के साथ जा लड़ा था। मैं विद्रोही था। मैं अब पूरे चराचर को तबाह कर देना चाहता था। जोरों से लगी भूख को मेरे प्रचंड क्रोध ने खा लिया था।
भूखा प्यासा मैं शाम पड़े घर लौटा था तो सीधा मॉं से ही मेरा मुकाबला हुआ था।
“कैसे चेहरा उतरा है रे ..?” मॉं ने मृदुल आवाज में पूछा था।
“रोटी क्यों नहीं भेजी?” मेरा सीधा प्रश्न था।
“क्या ..? रोटी नहीं भेजी! बेटा आज तो तेरे पसंदीदा घी के परांठे भेजे थे!” मॉं बताने लगी थीं। “कैसे भूलूंगी मैं ..?” वह भी भ्रमित थीं।
लेकिन मैं तुरंत समझ गया था – काने महीपाल की चाल को! वही खा गया था मेरे असली घी के पराठे। खुर्री रोटी खा खा कर वह ..
“चल आ अभी बनाती हूँ तेरे लिये पराठे!” मॉं मुझे मना रही थीं।
“मुझे भूख नहीं है!” मैं मचल गया था।
“भूल हुई भइया!” मॉं ने मुझे बाहों में भर लिया था।
काना महीपाल चिरंजी के बाद हम सब का मसीहा था। उसकी खूब चलती थी। आधी उम्र का मझधार था। वह घर-बार से लुटा-पिटा था और जहां वो था – उसे वहीं रहना था, ताउम्र! लेकिन अब मुझे तो महीपाल से हिसाब चुकाना ही था!
“इस काने ने ही खाये हैं तेरे पराठे, दिप्पो!” घंसू ने भी मुझे बताया था। “भूखा नंगा है साला!” घंसू ने उसे गाली दी थी।
“इसे सबक तो देना ही होगा!” मैंने घंसू को आंखों में देखा था।
“मैं तेरे साथ हूँ दिप्पो .. कहे तो साले को ..?”
बात को भूल में जाने दिया था मैंने। सब सहज और शांत चल रहा था। और एक दिन .. मेरा इच्छित दिन आ पहुँचा था – जब मैं और घंसू गॉंव से रोटी लेने जा रहे थे। हमने सब के घरों से रोटियां ली थीं और लौट रहे थे। जैसे ही नदिया के पुल पर पहुँचे थे मैंने घ्ंसू को अपना मंतव्य बताया था।
“क्यों न फेंक चलें सबकी रोटियां नदिया में? लगने दो हाथ सब सालों को!” मेरा विचार था। “पता तो चले कि भूख ..?”
“तू कहता है तो यही सही!” घंसू मान गया था।
और हमने गिन-गिन कर सबकी रोटियों को नदिया में फेंका था और खूब हंसे थे।
“ये चिरंजी .. बिगड़ेगा तो ..?” मैंने घंसू से पूछा था।
“चोर है – साला!” घ्ंसू तुरंत बोला था। “तुझे पता नहीं दिप्पो ये किस तरह भेंस गाय चोरी करता है और नोह के दलालों को बेच देता है! दलाल जमुना पार जाकर चोरी का माल बेच आते हैं और वहां का माल इधर लाकर बेच देते हैं!”
“अच्छा ..!” मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था। “ये इतना बड़ा घाघ् है?” मैं हैरान था।
अब हम दोनों फुरसत में थे। घंसू अपना प्रिय रसिया चलते-चलते गाने लगा था – “लैके चीर कदम पै चढ़ गयो!” मुझे भी यह प्रसंग बेहद पसंद था – जब कदम पर बैठे नटखट नटवर से गोपियां वस्त्र वापस लौटाने का आग्रह करतीं और कान्हा, “तनिक और बाहर आओ!” की मांग पर अड़ जाता!
कदम खंडी में प्रवेश पाते ही मैंने पूरे ग्वारियाओं के चेहरों को बड़े ही उल्लास के साथ देखा था। वो भी हमें खाली हाथों आया देख सकते में आ गये थे!
“किसी की रोटी नहीं आई आज” घोषणा मैंने ही की थी। “चंदन मिसर ने चूल्हा जलाने से मना किया है क्योंकि आज गहन पड़ेगा!” मैंने सच्ची कहानी गढ़ी थी। “भोजन रात को बनेगा!” मेरा आखिरी एलान था।
एक सन्नाटा छा गया था कदम खंडी में! चिरंजी चुप था। महिपाल मुझे तिरछी निगाहों से देख रहा था। मैंने कोई प्रतिक्रिया न दी थी। घंसू भी चुप था .. बिलकुल चुप! और फिर उन सब के पास पेट भर जोहड का पानी पीने के सिवा और कोई विकल्प ही न बचा था।
लेकिन शाम को घर लौटने पर तो काला सफेद बन गया था। न कोई गहन पड़ा था न ही कुछ चंदन मिसर ने कहा था। खाना तो हर घर से गया था फिर पहुँचा क्यों नहीं – एक पहेली नहीं सोची समझी साजिश थी – यह सब को स्पष्ट हो गया था!
दूसरे दिन माधो और महेश रोटी लेने चले गये थे। सब कुछ सहज चल रहा था। हम दोनों प्रसन्न थे कि कयामत के बादल अब न बरसेंगे। जब सब ने रोटी खा ली थी और हम काई डंडा का खेल आरम्भ करने वाले थे तब महीपाल ने आवाज देकर सब को बुलाया था। अब चिरंजी हम सब के सामने देव दूत सा सीधा खड़ा था!
“घंसू! तुझे ग्वारई नहीं करनी?” चिरंजी ने सीधा घंसू को पकड़ा था। घंसू हिल गया था। उसे बहुत डर लगता था जिरंजी से। “महीपाल!” चिरंजी का स्वर चटका था। “बक्कार दे इस साले के चौपे!” चिरंजी का आदेश आया था।
लेकिन घंसू ने झपट कर चिरंजी के पैर पकड़ लिए थे। रिरिया कर माफी मांगी थी और कहा था – कृपाल ने ..! घंसू को माफी मिल गई थी। अब चिरंजी की निगाहें मुझ पर आ टिकी थीं। मैंने भी उसकी हिंसक ऑंखों में सीधा देखा था!
“तेरी दादीजी का लिहाज करता हूँ!” चिरंजी ने कहना आरम्भ किया था। “अच्छे घर का है .. लेकिन .. तू तो झूठा है!” चिरंजी ने मुझे जलील किया था।
“तू चोर है!” मैंने भी सीधा ही तीर छोड़ा था।
ये दूसरा सन्नाटा था – जो कदम खंडी पर छा गया था!
चिरंजी आग बबूला हो गया था। उसे मुझसे उम्मीद न थी कि मैं उसे चोर कहूँगा। उसे तो मैं एक अबोध और अनाड़ी बालक ही जान पड़ता था!
“महीपाल! बक्कार दे इसकी भेंसें!” गरजा था चिरंजी।
“बक्कार दे!” मैं भी उठ खड़ा हुआ था। “हमारे खेत नहीं क्या?” मैं अकड़ा था। “चरा लेंगे अलग से!” मैंने उत्तर दिया था और सच में ही अपने चौपे लेकर अलग चला आया था!
शाम को घर लौटने पर उस दिन मैं न जाने क्यों अपने चौपों से जुदा जुदा महसूस कर रहा था। मुझे जंगल से भी नेह टूटा लगा था। मुझे घंसू भी याद नहीं आया था। कदम खंडी अभी भी दिमाग में लरक रही थी लेकिन ..
“क्या हुआ ..?” मेरा उतरा चेहरा देख दादी जी ने पूछा था।
“ये ले ..!” मैंने गमछा और सोटा दादी जी को पकड़ाया था। “कल से मैं नहीं खोलूंगा चौपे!” मैंने ऐलान किया था। “धर ले अपनी लकुटि कमरिया!” जैसे घंसू अचानक गा उठा था। “बहुत ही नाच नचायो!”
“फिर क्या करेगा?” दादी जी ने सायास पूछ लिया था।
“स्कूल जाऊंगा कल से!” मैंने अपना लिया निर्णय कह सुनाया था और बाहर चला आया था!
और हॉं! उस दिन मेरा पूरा परिवार ठां ठां कर खूब हंसा था – मेरे लिए इस निर्णय पर! उनका अनुमान भी ठीक था क्योंकि मेरी स्कूल जाने की उम्र तो कब की जा चुकी थी!

