महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !
भोर का तारा -नरेन्द्र मोदी .
उपन्यास- अंश :-
अमित ने शायद मेरा दिमाग पढ़ लिया था ? उस ने मेरे मन की बात ले ली थी .
“कृष्ण-बलदेव अब गोकुल से मथुरा ….माने कि दिल्ली जाएंगे ?” मैं मुस्कराया था . “कंस -मामा – माने कि कांग्रेस के पंजे पकड़ेंगे ….!! और …..” मैं रुक गया था . मेरा सोच भी ठहर गया था . मैं एकबारगी विगत में भागने लगा था !
“और …..?” अमित ने फिर से उत्तर माँगा था . वह अधीर हुआ लगा था , मुझे . आज वह किसी जल्दी में था .
“और …बहू बन कर देश में आई …और अब ‘माता जी’ बनी …सोनिया जी से सीधा मुकाबला ….और आमने-सामने की टक्कर होना …स्वाभाविक है, अमित !”
“तो होने …दो ! डरता कौन है ….?”
“डरने की बात नहीं …..करने की बात है ! तैयारी करने की !” मैं गंभीर था . “तुम एक बात जान लो , अमित …कि …’कंस’ और ….”माता जी’ दोनों ही अभेद्य गढ़ हैं !” मैंने अब अमित का चेहरा पढ़ा था . “काम नहीं ….दो नाम उन की सुरक्षा में ढाल बने खड़े हैं . ‘गाँधी’ और ‘नेहरू’ दो नाम हैं …जो अमरता पा गए हैं ! ये दो नाम , अमित हर किसी के जहन में जा बैठे हैं ! गाँधी ने ही सब किया – ये सब मानते हैं ! नेहरू – महान हैं , यह भी हर कोई मानता है ! एक शब्द …एक भी शब्द …इन दो नामों के खिलाफ बोला जाए …तो लोग इसे ‘गाली’ मानते हैं , अमित !” मैं ठहर गया था .
“तो …….?” अमित ऐंठ कर …मुकाबले में आ गया था .
“तो ….’अमित’ और ‘मोदी’ दो नए नाम हैं ! बच्चे हैं – इन दो नामों के मुकाबले !! लेकिन हैं भी यही दो नाम ….जिन्हें …हमें बड़ा करना होगा ….? पहुँचना होगा …लोगों के दिमागों में …और पुराने नामों को निकाल ….नए नाम …बिठाने होंगे ….?”
“कैसे ….?”
“काम ….!!” मैं हंस पड़ा था . “तरीका वही है,अमित …जो हमने गुजरात में अपनाया है ! अब हमारे नाम से पहले …हमारा काम बोलने लगा है !” मैं मुस्करा रहा था . “देश-विदेश …..जनता -जहान …. हमारा काम देखने गुजरात आते हैं ! छू-छू कर देखते हैं …पढ़ते हैं ….सुनते हैं ….सोचते हैं …और फिर एक मन बना कर लौटते हैं …” मैंने अमित को पढ़ा था . “और जानते हो ….वो क्या ले कर जाते हैं ….?”
“क्या ….?”
” ‘मोदी’ …..’अमित’ ……और ‘गुजरात’ …..!!” मैं फिर से हंस पड़ा था . “और …गुजरात से उठा कर ….हम इसी टेम्प्लेट को …’भारत’ के ऊपर सेट करेंगे …..!!”
“बनता है ….!!” अमित ने स्वीकार में सर हिलाया था .
मेरी बांछें खिल गईं थीं …..!!
और अमित के आग्रह पर ….आज मेरा भी गुजरात छोड़ कर दिल्ली भागने का मन बन गया था ….!!
“घर से भाग कर आए हो ….ना ….?” निर्मोही अखाड़े के महा मंडलेस्वर …कल्याण जी मुझे पूछ रहे थे .
और आश्चर्य ये कि …मैं …अचानक एक भगोड़े के भाव से भर गया था ! मैं तो भूल ही गया था कि मैं …वाद नगर से भाग कर कलकत्ता आया था ….और अभी भी हवा में ही तैर रहा था ….?
“जी …..जी ….गुरु जी ….!!” मैंने बड़ी ही विनम्रता से स्वीकारा था .
“मैं भी घर से भाग कर ही आया था ….!” कल्याण जी अब जोरों से हँसे थे . “हम दोनों अब एक जात के हुए, नरेन्द्र !” उन्होंने सहज स्वभाव में कहा था . “क्यों भागे …घर छोड़ कर ….?” उन्होंने पूछ ही लिया था .
“मैं ….मैं ….अपने आप को ढूंढ नहीं पा रहा हूँ, गुरु देव !” मेरे स्वर और भी विनम्र हो आए थे . “मैं ……” मेरा कंठ भर आया था . मैं चुप हो गया था .
“वक्त बताता है …..आदमी को उस का ठिकाना , वत्स !” वो सौहार्द पूर्वक बोले थे . “मुझे ही देखो …? पूछो मुझे ….कि मैं ….क्यों भगा था ….?” वह मुस्कराए थे . उन्हें कुछ याद आया लगा था .
और मुझे लगा था कि …हम दो ‘भगोड़े’ ….अचानक ही रेल गाड़ी के डिब्बे में …साथ-साथ आ बैठे थे ….और अब एक अज्ञात की ओर दौड़े चले जा रहे थे ….! हम दोनों अब चाह रहे थे कि …अपने-अपने सपने कह सुनाएं ….ताकि हमारा सफ़र …सफ़र न लगे ….एक यथार्थ बन जाए ….!!
“मुझे आश्चर्य होता है ,नरेन्द्र कि ….मैं एक तपस्वी ….घोर तपस्या के बाद भी ….मात्र एक घटना को नहीं भूला हूँ …जिस की वजह से मैंने इस संन्यास के मार्ग को अपनाया …ब्रहमचर्य …धारण किया ….एक वक्त भोजन करने का ब्रत लिया ….और ….और अपना तर्पण तक कर बैठा ….?”
“कुछ अघटनीय होगा …..या कोई अजूबा ….जो ….?” मैं तनिक निर्भीक हो कर बोल पड़ा था . उन के सामीप्य ने मुझे तनिक निडर बना दिया था .
“अ-जू-बा ……? हाँ,हाँ ! अजूबा ही कहें …तो ठीक होगा ….!” वह प्रसन्न हो कर बोले थे . “आज तक ये अजूबा जिन्दा है ….मरा ही नहीं …. ? मैं इसे भूला भी नहीं ! और सच मानो,नरेन्द्र कि ….निगाह चूकी नहीं कि ….” मुस्कराए थे , कल्याण जी .
“कि …….?” मैं भी एक शरारती बच्चे की तरह उन के सर हो लिया था …..उन के विगत में झांकने के लिए !
“कि ….ये …मेरा शत्रु …..जन्मजात शत्रु -कामदेव ….मेरे लिए अलकापुरी रच देता है ! लो , जी ! एक हँसता-खेलता ….संसार आ खड़ा होता है ! खिलते फूल …चहकते पंछी …..बहते झरने ….नदी-पहाड़ ….और जो कल्पना में भी न हो ….वह भी निगाहों के सामने आ कर ठहर जाता है !” गुरु जी ने अब मुझे नई निगाहों से निहारा था . वो सोचने लगे थे -शायद कि …अपनी अगली दास्तान …मुझ से कहें कि नहीं …? मैं तो उन के लिए अभी बच्चा ही तो था …?
“ठीक तुम्हारी उम्र ही तो थी – मेरी !” गुरु जी लौटे थे . “जिन्दगी ने आँखें खोल दी थीं ! मैं आनंद लेने लगा था ….जीवन का आनंद …. और जीने का किराया वसूलने लगा था !”
“किस से ….?”
“पिता जी देते थे …!” गुरु जी मुखर हो आए थे . “घनी थे ! बहुत बड़े धनवान थे ! पैसा ब्याज पर चढाते थे . लोगों से अनाप-सनाप ब्याज लगा कर ….उन के घर-वार तक नीलाम कर देते थे ! पैसा नहीं …तो कुछ दो – गाय,भेंस,घोडा ,,,या घर ….? या फिर जो भी हत्थे लगे – दो भाई ….? कर्जा तो पटाना ही होता था ….लोगों को ….? तो सब चलता था …!” हँसे थे , गुरु जी . “यहाँ तक , नरेन्द्र कि ….” वह रुक गए थे . किसी गहरे सोच में जा डूबे थे .
“मैं क्या देखता हूँ,नरेन्द्र …? पिता जी का रथ नई हवेली के सामने आ कर रुका था . पिता जी रथ से बाहर आए थे . फिर एक बूढा ….अध-बूढा आदमी रथ से उतरा था . और ….और फिर उतरी थी ….एक परी ! नई -नवेली वो परी जिस अदा से रथ से नीचे उतरी थी ….मुझे लगा था जैसे वो अलकापुरी से आई कोई अप्सरा थी ! फिर वो पिता जी के इशारे पर …आहिस्ता=आहिस्ता चल कर …नई हवेली में समां गई थी . और पिता जी उस अध्-बूढ़े व्यक्ति को ले कर …चौपाल पर आ गए थे . मैं अब भी इस घटना को अपलक देख रहा था . कई लम्हों के बाद वह आदमी कुछ ले कर चौपाल की सीढियां उतर रहा था . मैंने आगे बढ़ कर उस का हुलिया पढ़ा था . ग़मगीन था . आँखें आंसूओं से भरीं थीं . मन भारी था . और लडखडाते कदमों से वह ….उस कुछ को ले कर लौट गया था !” गुरु जी रुक गए थे . उन्होंने मुझे चलती निगाहों से देखा था . मैं पूरे ध्यान से उन की कहानी सुन रहा था .
“आप के पिता जी ………?” मैंने ही उन का मौन तोडा था .
“पहले भी सात शादियाँ कर चुके थे ! सात हवेलियाँ भी बना चुके थे !! ये आठवीं हवेली अब उन की आठवीं पत्नी के लिए थी …मैं समझ गया था ! मैं समझ गया था कि …पिता जी …हमेशा की ही तरह उस परी को भी अलकापुरी से …कर्जे की एवज उठा लाए थे ! और वो …उस परी का बूढा बाप …कर्जे में सब कुछ दे बैठा था !!” गुरु जी असहज हो उठे थे .
“ना जाने क्यों, नरेन्द्र ….? उस दिन मुझे …अपना बाप ….बाप नहीं …एक जल्लाद लगा था ! मैं ….मैं …उस दिन से ही …उन के खिलाफ हो गया था ! मैं ….मैं ….” उन का कंठ भर आया था .
“घर छोड़ कर ….भाग लिए थे ….आप …..?” मैंने कहानी का जैसे अंत ला दिया था .
“नहीं,नरेन्द्र !” गुरु जी भावुक थे . “मैं सीधा ही हवेली में जा घुसा था ! मेरा इरादा था कि ….मैं …उस परी से कहूँगा ….कि …”
“कहा ….कुछ …?” मैं भी अधीर था .
“कहाँ ….? मैं तो उसे देखता ही रह गया था , नरेन्द्र ! कैसा आकर्षक सौन्दर्य था …..? कैसा मोहक केश-विन्यास था ….? कैसा रंग-रूप था ….और …और …वो उस का चंचल नयनाभिराम ….जिस में मैं …अपांग डूब गया था ….मेरे लिए तो सर्वथा …नया-नूतन …और अपरिचित ही था ….?”
“आप विनीत हैं , ना ….?” उस ने ही मुझे पूछा था . कितनी मधुर आवाज़ थी,नरेन्द्र ? “मैं …चित्रा ….!!” उस ने विहस कर अपना नाम बताया था . “ब्याह लाए हैं …मुझे …आप के पिता जी ….!” उस ने मुझे सीधी सूचना दी थी . “बैठो …!” उस ने मुझ से आग्रह किया था . लेकिन मैं खड़ा ही रहा था . मैं उसे देखता ही रहा था – अपलक ! “आ -ओ , ना ….?” चित्रा ने अब मेरे एक दम समीप आ कर आग्रह किया था . उस के शरीर से उठती मोहक सुगंध मुझ तक पहुँच गई थी . एक आमंत्रण था -जो चित्रा ने मेरी ओर उछाल दिया था . मैं पागल हो गया था . मैं चित्रा को बांहों में भरने का साहस जुटाने लगा था . मैं ……” गुरु जी ने मुझे निरखा था . “सच ,नरेन्द्र ! मैं पागल हो गया था ….और …चित्रा को मैंने बांहों में भर लिया था ! और …और उस ने भी मुझे स्वीकार लिया था ! फिर हमने….हाँ,हाँ ….हमने अपने उस मिलन को … खूब मनाया था ….खूब गाया था ….और …”
“और ….?” मैं भी माना न था – पूछ ही बैठा था .
“चित्रा के साथ …एक दिन पिता जी ने ….पकड़ लिया था ….और नंगी कुल्हाड़ी से वार किया था …! वार बचा कर मैं तो भाग आया था …पर चित्रा का क्या हुआ नरेन्द्र , मैं नहीं जानता ….?”
गुरु जी संभले थे . होश लौटा था , उन्हें ! उन्होंने ने मुझे फिर से निगाहों में भर कर तोला था !
“निष्पाप आँखें हैं , तुम्हारी !” वह एक लम्बी चुप्पी के बाद बोले थे . “भारत का भविष्य है , उन में !” गुरु जी मुझे अपलक देख रहे थे . “मन करे …जब तक रहो,हमारे साथ ! लेकिन पुत्र ….?” आज उन्होंने भी मुझे वेदांत के बाद …निर्वाण लेने से रोक दिया था !
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए -मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!