“आ ताओ नीते खेलने तलेंगे” मैने कहा था कानू को…बड़ी हो गई थी कानू। बारिशों के बहुत सुहाने दिन थे..भोपाल में बारिशों के चार महीने बहुत ही सुहाने होते हैं। लगातार तीन-तीन दिन बारिश होती रहती है , यहाँ पर…कानू ऐसे मौसम में छत्त पर सारे दिन खेलने की ज़िद्द करती है, मैं ही नहीं जाने देती …भीगकर बीमार पड़ जाएगी…और गीले होने पर सूखते नहीं हैं ये पोमेरिन डॉग्स जल्दी। खैर!शाम हो चली थी कानू के घूमने का टाइम हो गया था।

“आ ताओ, तलो तलें नीते, दल्ली आओ”कानू भागी-भागी आई थी, गले में चैन डालकर हम सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे… सीढ़ियों के कोने में मैने एक गमला रखा हुआ है.. बस वहीं रुक गयीं थीं कानू रानी…मैने पूछा था”आना नहीं तातीं आप तलो भई”पर नहीं वहीं अड़ गयी थी कानू। मैने समझने की कोशिश की और चैन छोड़ वहीं खड़ी हो गई थी…वाह!क्या देखा—-गमले के पीछे कानू ने अपना पूरा मुहँ फँसा लिया था, और जमकर खड़ी हो गयी थी..एकदम चुप और टकटकी लगाकर देख रही थी…मैने उत्सुकतापूर्वक गमले को धीरे से सरकाया था ..देखा तो एक प्यारा सा नन्हा मेडक चुप -चाप गमले के कोने में बैठा है,और कानू मकानमालिक की तरह उसके सिर पर खड़ी थी—मानो कह रही हो बिना पूछे कैसे हमारी जगह पर कब्ज़ा कर लिया—या फिर मेरी परमिशन के बगैर रहने की इतनी ज़ुर्रत…. निकलो यहाँ से…मैने समझाया था”कोई बात नहीं, छोटा भैया है बैठने दो यहाँ पर”मेरी न मानी और मेडक को वहाँ से उठाकर ही छोड़ा।

चोट तो खैर नहीं पहुंचाई पर नीचे का रास्ता ज़रूर दिखा दिया। मेडक भी कम न था कूद-कूद कर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा, और प्यारी कानू रानी मेडक को एस्कॉर्ट कर रहीं थीं…कि सीधे बहार की तरफ जा रहा है,कि वापस मुड़कर गमले के पीछे बैठ जाएगा।खैर!चैन हाथ में लिये मैं भी पीछे चल रही थी…मेडक महाराज आगे-आगे और मैं और क़ानू पीछे-पीछे।मेडक कम शैतान न था, जानता था..कानू दीदी पीछे चल रही है,बस ध्यान रखते हुए गेट से बाहर निकल गया—उफ़्फ़… चलो ..साँस में साँस आई थी कानू को कि चलता कर दिया फिर तो खुशी-खुशी अपना खेल-कूद खत्म कर वापिस ऊपर आ गई थी..प्यारी कानू।

कानू की चैन खोलने के बाद मैं गमले को ठीक करने वापिस करने गई तो क्या देखा…मेडक महाराज वापिस उसी जगह पर विराजमान हो गए हैं।देखते ही हँसी आ गयी थी मुझे..और मुहँ से निकल गया था..कि वाह!बेटे बेवकूफ बना दिया दीदी को–चलो कोई बात नहीं चेकिंग कल शाम को फिर से होगी। पूरी बारिशें यही सिलसिला चला…यह प्यारी और मासूम सी नोक झोंक कानू और मेडक के बीच रोज़ शाम को हुआ करती थी।बरिशों के मौसम खत्म होने के बाद मेडक ने अपने आप ही गमले के पीछे वाली जगह छोड़ दी थी–और कानू की जान में जान आ गयी थी कि चलो पीछा छूटा बिन बुलाए मेहमान से।टेंशन सी खत्म हो चली थी कानू रानी की….नीचे कैसे ज़िद्द पकड़कर बैठ जाती थी कि नहीं बैठेगा ये यहाँ पर क़ानू का घर है।

खैर!बात उन्हीं दिनों की है.. घूमने तो हम कानू को लेकर शाम को जाते ही थे…क्या देखा हमने सड़क पर गड्ढा हो गया था,और उसमें पानी भर गया था,बरिशों के दिन तो थे ही एक दिन उसमें एक प्यारी सी छोटी सी मछली तैरती नज़र आई…कानू और मेरी उस मछली पर नज़र जा पड़ी…बहुत अच्छी लगी थी कानू को मछली ..घंटो उसे हाथ से हिलाकर देखा और मुहँ को पानी के अन्दर ले जाकर सावधानी से मछली को स्पर्श करते हुए hello!बोला था। हम वहीं खड़े हो गए थे और दस पन्द्रह मिनट तक कानू मछली के साथ बहुत आहिस्ता-आहिस्ता खेलती रही थी.ऐसा लग रहा था,कि मछली को भी क़ानू की दोस्ती और उसकी गुलाब जामुन जैसी नाक का स्पर्श पसंद आ रहा था–“हो गया तलो”अब हम मछली को बाई-बाई बोलकर ऊपर आ गए थे।

इसी तरह यह नई सदस्या कानू अब बच्ची न रहकर बड़ी हो गई थी…दिन बीत रहे थे हमारे साथ।मन का हर एक तार कानू के साथ रोज़ जुड़ता जा रहा था..और ज़िन्दगी यूँ ही चल रही थी।कानू और कानू की दोस्तियां अब अपनी सी होने लगी थीं।यह छोटी-छोटी बातें और यादें कभी न भूलने वालीं थीं और रहेंगी।

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