” दिखाना हाथ..!”।
” बाद में..! चुप! इस पीरियड के बाद.. अभी मैडम देख रहीं हैं!”।
” अपना राइट हैंड दिखाना.. ठीक है!”।
कक्षा में मौका मिलते ही.. हमारी यह अजीब सी चर्चा चालू हो जाया करती थी।
चर्चा का विषय कोई ख़ास न होकर.. एक दूसरे के हाथों में तिलों की छानबीन को लेकर या फ़िर ठोड़ी में गड्ढे की गहराई को लेकर हुआ करता था।
पंडित और दुनिया भर से ज़्यादा ज्ञानी बन.. कौन कितना ज़्यादा लकी है.. पता लगाते रहते थे।
न! न! मज़ाक नहीं! कौन सी अंगुली में तिल है.. ढूँढ़ते समय एकदम सीरियस हो जाया करते थे।
” ए! वाओ! बीच की अंगुली में काला तिल है.. तेरे!देखना तू बहुत पैसे वाली बनेगी! दिखा! दिखा! ओए…! ठोड़ी में गड्ढा..! सुपर..! तेरा तो तगड़ा लक साइन है.. रे!”।
बीच की अंगुली और हथेली पर तिल.. उन दिनों हमें बहुत पैसे वाला बना दिया करता था.. और ठोढ़ी पर गड्ढे के तो कहने ही क्या थे।
बिंदास वो बचपन था, बिंदास वो सोच हुआ करती थी.. ज़िन्दगी की काशमश और सच्चाई से परे हमारी दुनिया हथेली और अंगुली के तिलों को देखकर ही आबाद रहा करती थी।
और ठोढ़ी में गड्ढा तो सातवें आसमान में यूँहीं पहुँचा दिया करता था।
सच! वो लक साइन में सिमटी हुई.. हमारी दुनिया आज की अनुभवी जीवन से कहीं ज़्यादा प्यारी थी.. लक साइन देखते ही.. पल भर के लिए सारी खुशियाँ जो हमारी हुआ करतीं थीं।