सुनीता ने अपने पिताजी को रामलालजी के विषय में ख़बर कर दी थी, और मुकेशजी और अनिताजी दर्शनाजी से मिलकर रामलालजी की तेरहवीं से पहले ही चले गए थे। इतने बड़ा उद्योगपति परिवार होने के बावजूद भी.. रामलालजी की तेरहवीं के विषय में किसी भी जानकार को न ही सूचित किया गया था.. और न ही कोई भी शोक संदेश पत्र ही छपवाए थे। पर उनकी पूजा का दिन तय कर दिया गया था।” पापे जेब में सिर्फ़ सौ रुपियाँ छोड़ गया था.. वा तो विनीत ने मन्ने दे दिये!”।

इस परिवार में आगे पीछे संगी और सगा सिर्फ़ पैसा ही था, और सभी रिश्ते सिर्फ़ मतलब के आगे-पीछे घूम रहे थे। दर्शनाजी ने तो रामलालजी के बारे में विनीत की बोली हुई बात कह ही डाली थी.. कि उनकी जेब में सिर्फ़ सौ रुपये ही मिले थे.. जो उन्हें विनीत ने दे दिये थे। हरियाणे भी रामलालजी की ख़बर पहुँच चुकी थी.. और वहाँ से भी उनके भाई और दर्शनाजी की बहन पूजा वाले दिन पहुँचने वाले थे।

रामलालजी की तेरहवीं वाला दिन आ गया था.. घर में पंडित को बुला कर साधरण हवन जो कि किया जाता है.. की व्यवस्था करी हुई थी। तेरहवीं से सम्बंधित कोई भी ख़बर दिल्ली नहीं पहुँची थी, इसलिये मुकेशजी के परिवार में से कोई भी रामलालजी की शोक सभा में शामिल नहीं हुआ था।

पूजा वाले दिन घर में ही भोजन की व्यवस्था कर दी गई थी.. पूजा में केवल रमा के मायके से उसका परिवार.. क्यों वह लोग इंदौर के ही रहने वाले थे, और इक्का-दुक्का लोग और भी शामिल हो गए थे।हरियाणे से रामलालजी के भाई, बहन और दर्शनाजी की बहन की उपस्थिति में तेरहवीं का कार्यक्रम सही ढँग से सम्पन्न हो गया था। घर में बने भोजन रूपी प्रसाद का भी अच्छी प्रकार से वितरण भी हुआ था.. और सबनें इस भोजन को पूरे श्रद्धा भाव से गृहण भी किया था। “ मेरी बुलबुल के लिये भी हलवा और थोड़ी ज़्यादा गोभी बाँध दे!”।

“ गोभी इतनी नहीं बची, बाकी सभी हैं.. अभी खाने वाले!”।

रमेश रंजना के पीछे घर बैठे मेहमानों के सामने ही पड़ गया था.. कि रंजना के लिये हलवे का प्रसाद और गोभी ज़्यादा बाँधी जाए! सभी मेहमान रमेश के तमाशों पर हैरान थे.. और जानना चाहते थे, आख़िर ये “ मेरी बुलबुल” बोल किसको रहा है। बाहर वाले सभी रिश्तेदार चले गए थे.. अब केवल रमेश के चाचा, बुआ और मौसी रह गए थे। शाम का वक्त था, और सभी चाय की चुस्की ले रहे थे.. और एक बार फ़िर से रमेश ने अपनी बे- सिर-पैर की बात दोहराई थी।

“ तन्ने बेरा से! मेरे धोरे एक बुलबुल से!’।

रमेश ने रंजना को लेकर चाची से कहा था। अब सारे हरियाणे से आए रिश्तेदारों को रंजना के विषय में पता चल ही गया था.. अरे! हाँ! अभी क्यों थोड़ा सा आईडिया तो मम्मीजी ने पहले से ही हर किसी को फ़ोन पर दे ही रखा था.. पर अब बात पूरी तरह से खुल गई थी। रामलालजी के भाई और बहन दर्शनाजी के परिवार की सोच से कहीं अच्छी सोच रखते थे, और उन्होंने सुनीता को समझाते हुए कहा था,” तू चिन्ता मत ना कर.. कब ताईं पालेगा! हाथ हथेली तो कुछ भी कोनी! के खागी वा!”।

उनका कहने का मतलब यह था.. कि रमेश को तो अभी हिस्सा मिला ही नहीं है! लड़की तो पाल रखी है.. पर उसे खिलाएगा क्या..??

जब कुछ खाने को ही नहीं मिलेगा.. तो अपने-आप ही भाग जाएगी।

रंजना और रमेश का क़िस्सा अब पूरे इंदौर और पूरे हरियाणा में फैल गया था.. रमेश ने खुलकर रंजना को अपनी पत्नी का दर्जा भी दे दिया था। अनजान लोग रमेश और रंजना को ही पति-पत्नी समझने लगे थे। और थोड़े दिन पहले ही रामलालजी के जाने से पहले.. घर में पुताई का काम चल रहा था, रमेश घर से सारे दिन गायब रहकर  रंजना की माँ का इलाज करवा रहा था.. इधर सुनीता अकेली पुताई वालों के साथ लगी हुई थी। काम करवाते-करवाते थक हारकर सुनीता को शाम हो गई थी.. रमेश बाबू रंजना और उसके परिवार की चमचागीरी कर देर रात को लौटे थे.. रमेश को घर आया देखकर रंजना से रुका न गया था.. और तुरन्त बोल पड़ी थी,” उसी के साथ रहना! मैं घर में तुम्हारी कामवाली हूँ.. क्या!!”।

“ रहूँगा मैं उसी के साथ! बीबी है! मेरी!!”।

रमेश ने सुनीता के सामने पहली बार रंजना को अपनी बीवी का दर्जा बेझिझक दे दिया था। और देता भी क्यों नहीं.. अपनी माँ की पूरी सपोर्ट जो थी.. रमेश महाशय को! सुनीता रमेश के मुहँ से रंजना के लिये बीवी शब्द सुनकर हैरान तो रह गई थी.. पर बोली कुछ नहीं थी।

“ आप को जो करना है! अभी करो… नहीं तो आपको ये अपने पीछे-पीछे घुमाएगा!!”।

मालिक.. कौन..?? रामलालजी के परिवार में किसकी क्या हैसियत रह गई थी.. हिस्से को लेकर किये जाने वाले फैसले में आप भी शामिल हो, हमें अपनी राय लिखकर भेजिये.. और हमेशा की तरह जुड़े रहिये.. हमारे खानदान के साथ।

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