घर में ज़मीन बेच-बेच कर अच्छे पैसे आ रहे थे.. रमेश का एन्जॉयमेंट भी अच्छा चल रहा था। अब ऐसे ज़मीन बेच कर आए हुए पैसों से घर तो सुनीता का बसना ही नहीं था.. और वैसे भी एक-एक रुपये की ख़बर दर्शनाजी के पास थी.. आख़िर सासू-माँ उस्तादों की उस्ताद थीं.. रमेश के पैसे उड़ाने की उस औरत को बेहद ख़ुशी थी.. पर एक बात का दर्शनाजी ध्यान ज़रूर रखतीं थीं.. की कहीं रमेश घर-वर बसाने में उनके बाप के पैसों का इस्तेमाल न कर बैठे। वैसे देखा जाए तो दर्शनाजी को इस उम्र में ज़मीन से आए पैसों का करना भी क्या था.. विनीत और रमेश दोनों बेटों के आराम से घर बन जाते.. पर विधि का विधान कुछ और था.. ईश्वर कोई और ही नाटक करवाना चाह रहे थे.. जिसकी रचनाकार उन्होंने दर्शनाजी को चुना था।

रमेश का हरियाणे ज़मीन के सिलसिले में आना-जाना लगा रहता था। पता नहीं क्या दिमाग़ था.. रमेश का.. या फ़िर क्या चक्कर था.. हरियाणे से आकर रमेश ने सुनीता को अपने मोबाइल फ़ोन में फ़िर से एक लड़की की तस्वीर दिखाते हुए कहा था,” इसको लाऊंगा!”।

सुनीता लड़की की फ़ोटो और रमेश दोनों को ही देख कर हैरान हो गई थी। वैसे देखा जाए तो कमाल ही हो गया था.. इतने ड्रामे के बाद भी रमेश ने हिम्मत के साथ वही नाटक दोबारा पेश कर दिया था। सुनीता का एक बार फ़िर यह जानकर कि एक और फ़िर से आ गई है.. चेहरा उतर गया था.. और मन की बात चेहरे पर छप गई थी.. जिसे लिये सुनीता जब नीचे पहुँची थी.. तब सासू-माँ सोफे पर बैठी सुनीता का ही इंतेज़ार कर रहीं थीं.. और बहू का चेहरा देख फटाक से माजरा समझ गईं थीं.. आख़िर चाल भी तो माताजी ही चल रहीं थीं.. रमेश तो सिर्फ़ मोहरे का काम करता था। दर्शनाजी को इस हरियाणे वाली लड़की के बारे में पूरा पता था.. और पता होता भी क्यों नहीं.. रमेश अपनी माँ का पूरा ग़ुलाम और पक्का पालतू था।

“ मन्ने कुछ भी कोनी बेरा!.. क्या चल रया है!”।

दर्शनाजी ने सुनीता का चेहरा देखते ही मज़े लेने के लिये कह दिया था.. कि उन्हें कुछ भी नहीं पता, क्या चल रहा है।  

“ तू इस छोरी का पता लगा, और इसने सीधा कर”।

दर्शनाजी ने एक बार फ़िर से सुनीता का नमूना खींच दिया था। और सुनीता ने बेवकूफ़ बन कर रमेश के फ़ोन से हरयाणे वाली लड़की का फ़ोन नम्बर निकाल कर सासू-माँ को जा बताया था। “ इब तू इसके घरां इसके बाप धोरे फ़ोन लगा”।

दर्शनाजी ने सुनीता को हरियाणे में लड़की के पिता के पास फ़ोन लगाने की सलाह देते हुए कहा था।

सुनीता का दिमाग़ एक बार फ़िर से नाटक के लपेटे में आकर परेशानियों से घिर गया था। एक नाटक ख़त्म होते ही दूसरा नाटक जन्म ले लेता था।

हर बार कोई न कोई इसी तरह का नाटक क्यों हो रहा था.. सुनीता अभी समझ नहीं पाई थी। पर इस बार सुनीता ने इस नाटक की ख़बर दिल्ली नहीं पहुंचाई थी।

सुनीता ने एकबार सोचा भी था.. कि वो वरुण को अपनी परेशानी बता कर देखे.. पर डर गई थी। सोचने लगी थी,” क्या सोचेंगे वरुण मेरे और रमेश के बारे में जानकर”।

सुनीता ने वरुण के दिमाग़ में अपने आप की और रमेश की बहुत ही अच्छी छवि बना रखी थी…डरती थी.. कि कहीं वरुण के आगे रमेश और सुनीता की दिखावे वाली छवि ख़राब न हो जाए। फ़िर भी सुनीता से रहा न गया.. और उसने एक सहेली का नाम लेते हुए वरुण के आगे सब कुछ कह डाला था.. और वरुण से सलाह माँगी थी।

“ आपकी फ़्रेंड के हस्बैंड को समझाया जा सकता है.. और कोई भी तरीका नहीं है.. अगर वो समझ जाएँ तो ठीक है”।

वरुण ने सुनीता की कहानी सुनकर सुनीता को सलाह दी थी।

“ आगे से जी ऐसा नहीं होगा!.. हम समझा देंगें”।

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