पैसे आने से बच्चे भी खुश थे.. और रमेश भी खुश थे.. पर सुनीता खुश नहीं थी.. अन्दर ही अन्दर मन में कह रही थी.. ये पैसे तो हमारे हैं ही नहीं। ऐसा लग रहा था.. सुनीता को जैसे घर में टेम्पररी खुशी आ गई हो। यह बात कुछ हज़म नहीं हुई थी.. दर्शनाजी ने रमेश के हाथ में पैसे दे कैसे दिये। एक बात और कमाल की यह थी.. कि विनीत ने एक बार भी अपनी माँ से ज़मीन के पैसों में से कुछ भी नहीं माँगा था.. और न ही दर्शनाजी ने अपने बड़े बेटे को कुछ भी देने के लिये ही पूछा था। यहाँ बात कुछ अंदर की थी.. सीधा न तो विनीत था.. और दर्शनाजी तो खैर!.. थीं हीं.. दूरदर्शी राजनीतिज्ञ। विनीत और विनीत के परिवार के चेहरे पर जहाँ लाखों रुपये बंट रहे हों.. सहजता देख वाकई दाल में कुछ काला लग रहा था।
सारे शहर में रमेश के पैसों का ढिंढोरा तो पिट ही गया था.. और रमेश तो ख़ुद भी कम नहीं था.. अब तो रमेश के ख़र्चे-पानी आसमान छू गए थे.. और रमेश ने अपनी पर्सनल चमक-दमक भी बढ़ा दी थी। घर में मोबाइल फ़ोन का तो रमेश ने फ़ालतू का ढ़ेर लगा दिया था.. बच्चों तक के हाथ में फ़ोन दे दिये थे.. जिनका कोई मतलब नहीं था.. सुनीता हाथ बाँध पैसे उड़ाने का तमाशा देख रही थी.. क्या करती.. उड़ाने-खाने का तमाशा देख रही थी.. भली-भाँति जानती थी.. पैसे तो सासू-माँ के हैँ।
एक खबर घर में उड़ती हुई सी घूम रही थी.. कि फैक्ट्री के पीछे रामलालजी का प्लॉट है.. जो दोनों भाईयों के नाम है.. और उसकी कीमत दस-लाख है। सुनीता को बात सुनते ही थोड़ा सा आईडिया हो गया था। कि हो न हो यह प्लॉट विनीत के पास पूरा का पूरा जाएगा। घर में संपत्ति की कमी न होते हुए भी ऐसा लगता था.. जैसे पैसा नालियों में बह रहा है.. उस पैसे का कोई उपयोग तो हो ही नहीं रहा था.. माँ-बाप तो करोड़पति ज़रूर थे.. पर लड़कों की ज़िंदगी अपने-अपने ढँग से जी हज़ूरी करने में ही निकल रही थी। ऐसा लगता था. जैसे माँ या बाप किसी का भी दामन छोड़ते ही गए काम से । इधर रमेश तो माँ के पल्लू से बंधा ही हुआ था.. दूसरी तरफ़ विनीत पिता की वफादारी में वयस्त था। दोनों अपने-अपने ढँग से पैसे निकाल रहे थे। वैसे देखा जाय.. तो ग़लत तो कोइ भी न था.. अब दोनों ही बच्चे विवाहित थे.. उनकी सन्तान थीं.. और फैक्ट्री वाले अलग से थे.. तो भई!.. पैसे तो दोनों को ही चाहये थे.. जिसको जो रास्ता मिला था, उसी पर चल पड़े थे। रामलालजी ने धन तो बहुत कमाया था.. पर बेटों में उस धन की प्रॉपर कोई भी हिस्सेदारी नहीं थी। घर में माताजी के प्रकोप ने ऐसा चलन डाला था.. कि कोई भी खुल कर अपनी ज़रूरतों की बात करने में डरता था। दर्शनाजी बेटों को तो ब्याह लाईं थीं.. राजा का घर होते हुए भी सासू-माँ का दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया था। हरियाणे के घिसे-पिटे रिवाज़ लगा-लगा कर सबका भेजा ही फ्राई कर डाला था। वो तो करना ही था.. अब सासु-माँ के ऊपर हो कर चलने की हिम्मत किसी माँ के लाल में थी ही नहीं। इसीलिए तो बढ़िया हुकूमत चल रही थी.. ,उनकी। सबकी कमज़ोरी को जेब में डाल मस्त रहा करतीं थीं।
इन ढ़ेर पैसों में विनीत का घर तो बसता लग रहा था.. पर सुनीता की नैया ही डोलती लग रही थी। सुनीता परिवार में रहकर पैसे को इस्तेमाल करने का तरीका देख-देख कर जान गई थी। क्या करने के लिये क्या कहना पड़ता है.. वो बात भी समझ ही गई थी। पर इधर रमेश को सीखा-पढ़ा नहीं पा रही थी। रमेश का दिमाग़ अपनी माँ की देख-रेख में ही था.. जो भली-भाँति जानती थी.. कि अगर पैसे को ठिकाने नहीं लगवाया तो हो सकता है.. की यह लडक़ी सुनीता.. रमेश के संग घर ही बसा डाले। उधर विनीत और रमा इस बात में एक-जुट थे.. हवा भी न निकलने देते थे.. उनके पास कितना है.. और कहाँ है। विनीत कोई बेवकूफ़ तो था, नहीं.. जो रोज़ शाम को फैक्ट्री से ख़ाली हाथ लौट आता होगा। विनीत के इतना चुप-चाप और शाँत रहना यही दर्शाता था.. कि रोज़ के दस-हज़ार तो कमरे में लेकर ही आ रहा है.. आख़िर था, तो विनीत दर्शनाजी का ही खून और रमेश का भाई। पर मियाँ-बीवी हरियाणे के रिवाज़ों के मुताबिक ही चुप-चाप दर्शनाजी की हर चाल को भाँपते हुए क़दम बढ़ा रहे थे। दर्शनाजी भी कम न थीं… आए दिन इन पैसों के पीछे जम कर दंगा किया करतीं थीं। लेकिन विनीत और रमा को हर वार झेलना आता था। कौन सी बात को हरियाणे के कौन से तरीके से काटना है.. दोनों बेहतर जानते थे।
घर तो क्या बसना था.. पर नोटों की लूडो खूब चल रही थी.. रामलाल विला में।
सुनीता का भी अब थोड़े दिन दिल्ली जाना हो गया था.. इस बार रमेश ने सुनीता को अच्छे ढँग से भेजा था। बच्चे भी मना करने के बावजूद भी हाथ में मोबाइल-वगरैह लेकर नानी के घर पहुँचे थे। बहुत ही बनावटी लग रहा था, सब। बच्चे तो बच्चों की तरह ही अच्छे लगते हैं.. पर रमेश जैसे खोखले इंसान को समझाना बहुत ही टेढ़ा काम था.. उसका तो वही डायलॉग हुआ करता था..” हम कोई भूखे-नंगे हैं, क्या!”।
सच! बेहद नीच और घटिया डॉयलोग बोलता था.. रमेश!। अरे! कौन होता है.. नंगा- भूखा!.. सब के नसीब की रोटी और कपड़ा देता है.. परमात्मा। पर वही संस्कारों और शिक्षा से रहित वाली बात आ ही जाती है।
खैर! अनिताजी सुनीता के हाथ में मोबाइल वगरैह और बच्चों के हाथ में तरह-तरह की चीज़ें देख कर बहुत खुश हुईं थीं। जिस पर सुनीता ने अपनी माँ से कहा था,” माँ!. यह सब हमारे पैसों का नहीं है!”।
“ कोई बात नहीं!.. तू भी दिखावा कर ले!.. क्या जाता है!’।
अनिताजी ने सुनीता से कहा था।
“ मेरे बाप का खा रहे हो सब!”।

