दर्शनाजी और रमेश हरियाणे के लिये निकल गए थे। जब भी माँ-बेटा हरियाणे जाया करते थे… घर का माहौल बदल जाता था। रामलालजी अपनी धर्मपत्नि की गैर हाज़िरी में बहुत खुश रहा करते थे। सुनीता और रमा भी एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से ही रहतीं थीं। घर में तरह-तरह के भोजन बनने लग जाया करते थे.. जो दर्शनाजी के सामने डर के मारे नहीं बनते थे। घर में किसी तरह का क्लेश नहीं होता था। ईश्वर की दया से परिवार में पैसे-धेले की तो कोई कमी नहीं थी.. इसलिये माताजी की गैर-हाज़िरी में सब अपने मन की सी कर लिया करते थे। खबर आ गई थी.. कि गाँव से माँ-बेटा अब घर आ रहें हैं।
घर में यह बात नेहा और प्रहलाद ने फैला ही दी थी.. कि पापा हरियाणे से दस-लाख रुपये लेकर आ रहे हैं। घर आकर दर्शनाजी थोड़ी देर तो एकदम सही रहीं थीं.. उसके बाद उनके नाटक शुरू हो गये थे..” निकाल!.. मेरे बाप के पैसे!”।
दर्शनाजी ने रमेश से ऊपर आकर कहा था।
“ तेरे बाप के कित्ते आ गए.. उड़े गोलियाँ तो मैं खान लाग रया था!.. तन्ने गोली खाई होंदी!.. और ले लेती पिसे!”।
रमेश का अपनी माँ से एक ही कहना था.. कि जहाँ से वो ज़मीन के पैसे लेकर आया है.. वहाँ गोलियाँ चल रहीं थीं.. बहुत मुश्किल से लाया है.. रमेश पैसे!
“ बक़वास करे है.. कोई गोली ना चाले थी!”।
माताजी कह रहीं थीं.. कि रमेश फ़िज़ूल की बात कर रहा है.. कोई गोली-वोली नहीं चल रही थी।
“ वो तेरे भतीजे खा जाते.. तब!”।
रमेश ने दर्शनाजी के भतीजों को लेकर ताना कसा था.. कि अगर रमेश नहीं ज़मीन का सौदा करता तो दर्शनाजी के भतीजे उनका हिस्सा हड़प लेते।
खैर! माँ-बेटों में ज़बरदस्त नाटक हुआ था.. ज़मीन को लेकर। और होता भी क्यों न पैसा चीज़ ही ऐसी होता है। और हकीकत में यह पैसा तो माँ की ज़मीन बिकने का ही था.. रमेश को सारा पैसा बिना किसी लालच के माँ को ही सौंप देना चाहिए था। ऐसा किसी का मारा हुआ पैसा फलता नहीं है। और न ही ऐसे पैसे से घर में संस्कार ही आते हैं। जैसे आता है.. वैसे ही निकल भी जाता है। सुनीता की सोच यही थी, कि सासु-माँ की ज़मीन का एक रुपया भी रमेश न रखे। क्योंकि सुनीता भाँप गई थी.. कि आगे चलकर रमेश संपत्ति में हिस्सेदार नहीं रहेगा। सुनीता रमेश को यही बात समझाना चाहती थी.. पर रमेश अपने आगे किसी को गिनता ही कहाँ था।
एक बात और गौर करने की थी.. कि विनीत का पैसों में माँ ने कहीं भी ज़िक्र नहीं किया था। तमाशा सिर्फ रमेश और दर्शनाजी में ही चल रहा था। हार -थक कर और दर्शनाजी के बहुत बुरी तरह से करने पर रमेश ने माँ के बैंक में साढ़े-छह लाख रुपये ट्रांसफर कर दिये थे। तब जाकर दर्शनाजी की थोड़ी जान में जान आई थी। इसके बावजूद भी दर्शनाजी के मुहँ से निकल गया था,” थोड़े बहुत दस एक हज़ार ले-ले है.. खर्च ख़ातिर!”।
अब भी दर्शनाजी यही कह रहीं थीं.. कि रमेश थोड़े-बहुत पैसे ख़र्चे-पानी के लेकर बाकी सारे उन्हीं को दे देता। और सही भी था.. पैसा तो उन्हीं का था.. मर्ज़ी उनकी।
इन दस-लाख रुपयों में से रामलालजी ने भी फैक्ट्री के लिये ट्रैक्टर ख़रीद लिया था। अब बस एक-डेढ़ लाख रुपया ही रमेश के पास बचा था। लेकिन खून से हाथ तो रंग ही गए थे.. नाम तो रमेश का ही हो गया था.. कि माँ की ज़मीन खा गया। इस बात में रमेश को बदनाम करने में दर्शनाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
बचे हुए पैसों को उड़ाना रमेश के लिये कोई मुश्किल बात नहीं थी। सुनीता इन पैसों के लिये बिल्कुल भी न बोली थी.. जानती थी.. हमारे नहीं हैं.. पर रमेश को कुछ भी समझा पाने में एक बार फ़िर असमर्थ हो रही थी।
“ तू भी दिखावा कर ले..क्या! जाता है!”।