मुकेशजी और अन्य घर के सदस्य भरत को पास के ही श्मशानघाट लेकर गए थे.. भरत को जलाया नहीं दफनाया गया था.. क्योंकि वह अभी नन्हा शिशु था। घर में माहौल दुःखद था, जो होना ही था। घर के बड़े सुपुत्र होने का सुनीलजी ने बखूबी फ़र्ज़ अदा करते हुए.. उसी दिन रात को किसी को भी भूखा नहीं सोने दिया था,” जो होना था, सो! तो हो गया.. होनी पर किसी का भी वश नहीं चलता.. पर इस जीवन को आगे चलाने के लिये शरीर को भोजन की आवश्यकता है”। सुनीलजी ने घर के सदस्यों को समझाते हुए कहा था.. व सभी को रात के भोजन में थोड़ी-थोड़ी बिना छोंक की उबली हुई दाल व रोटी खिला दी थी।

“ हिम्मत है!.. आगे बढ़ने की!… जो हुआ अच्छा! ही हुआ.. अगर भरत जीवत रहता तो वह बच्चा बहुत कष्ट पाता.. उसका जीवन नर्क बनते देख तुम्हें भी अच्छा नहीं लगता।

ईश्वर ने भरत को अपने पास बुलाकर बच्चे की और तुम्हारी सहायता की है। भरत हमारा सभी तरह के कष्टों से मुक्त हो आज स्वर्गलोक में आराम से है”। मुकेशजी ने सुनीता को समझाते हुए कहा था।

सुनीता अभी बिस्तर पर नेहा और प्रहलाद के संग.. भरत की याद में बैठी थी। प्रहलाद बेशक अभी बच्चा था.. पर उसे अपने भाई को खोने का अहसास था। प्रहलाद के चेहरे की उदासी से साफ़-साफ़ पता चल रहा था.. की उस दिन हम पाँच एक ही बिस्तर पर थे.. आज चार क्यों रह गए। आज दोनों माँ-बेटा नेहा को गोद में लिये भरत की याद में उदास बैठे थे।” लो! थोड़ा-सा आटे का हलवा खा लो!.. शरीर में खोई हुई ताकत आ जायेगी.. इन मासूमों की परवरिश तो करनी ही है.. “।

अनिताजी ने सुनीता को समझाते हुए कहा था। घर मे सुनीता से मिलने वाले जान-पहचान के लोग आने लगे थे.. माहौल धीरे-धीरे सहज हो रहा था। खबर तो इंदौर भी पहुँच गई थी.. पर इंदौर से कोई भी न आया था।

“ मेरी तबियत ख़राब रहती है.. बहुत लू चालें।हैं”।

दर्शनाजी ने सुनीता से दिल्ली न आने के लिये कहा था.. कि उनकी बहुत तबियत ख़राब है.. लू भी चल रहीं हैं.. वो अभी दिल्ली नहीं आ सकतीं.. पर उन्हें भरत के जाने का बेहद दुख है। रमेश भी हरियाणे से वापस इंदौर चला गया था। “ थोड़े दिन बाद अम्मा को लेकर आऊँगा.. और बच्चों और तुम्हें संग लेकर चलूँगा”। कहकर इंदौर के लिये निकल गया था। विनीत तो भरत के जाने से पहले ही इंदौर पहुँच गया था।

सुनीता और बाकी का परिवार अब भरत का जाना धीरे-धीरे समझ रहे थे। नेहा को भी प्रहलाद की तरह से ही पीलिया हो गया था। पर उसको धूप वगरैह लगाकर ठीक करा जा रहा था।

नानी के घर में समय के साथ नेहा थोड़ी सी बड़ी ही गई थी.. रमेश अपनी माताजी के संग अब दिल्ली सुनीता और बच्चों को लेने आ रहा था।” अब ये बुढ़िया यहाँ कौन सा नाटक करने आ रही है.. जब सारे काम हो चुके हैं”।

सुनीलजी ने दर्शनादेवी को लेकर ताना कसा था।

माँ और बेटा की जोड़ी दिल्ली आ पहुँची थी। दर्शनाजी ने भरत को खोने के दुख का नाटक परिवार के आगे खूब बढ़िया पेश किया था। दर्शनाजी के आगे ही मुकेशजी के घर किन्नर बालकों की बधाई  देने भी आ गये थे। हालाँकि अनिताजी ने किन्नरों को भरत का जाना समझा दिया था.. पर फ़िर भी किन्नरों का कहना था,” अरे! बीबी! नेहा बिटिया तो हमारे साथ ही है.. इसकी बधाई नहीं देगी!.. कन्या भवानी है’।

अनिताजी किन्नरों ने जब बात नेहा पर डाली.. तो कुछ न कह पाईं थीं.. किन्नरों ने अपना नाच-गाना पूरे ज़ोरों से शुरू कर दिया था। मुकेशजी और घर के बाकी के सदस्यों को भी किन्नरों ने वहीँ बैठा लिया था.. किन्नरों ने नाच-गा कर एक बार फ़िर घर का माहौल बदली कर दिया था। रमेश और रमेश की माताजी अभी ऊपर कमरे में आराम से बैठे थे.. कहने पर भी नाच-गाने में शामिल नहीं हुए थे.. कहीं कोई कुछ माँग न बैठे, और पता न चल जाए कि बच्चे की दादी-माँ यहीँ बैठीं हैं.. आख़िर पैसे का सवाल था.. बाबा!.. दर्शनाजी जैसी बिसनेस woman से जेब ढीली करवानी आसान न थी.. फ़िर चाहे मामला पोते-पोती का हो!.. या फ़िर..  माताजी के ख़ुद के बाप का।

खैर! किन्नरों ने जम कर बधाई गाई.. और नेहा की खुशी मनाई थी.. जाते वक्त.. अनिताजी ने बिना किन्नरों को यह बताए.. कि नेहा की दादी भी यहीँ हैं.. संस्कारी और शरीफ़ महिला जो थी.. अब दर्शनाजी की तरह बिसनेस करना तो जानती न थी.. जम कर किन्नरों को विदा दे कर खुश किया.. और नेहा के लिये लाखों-हज़ारों आशीर्वाद बटोरे थे।

“ Bye!.. DIlip Kumar!”।

अरे! यह क्या!.. सबके चेहरों पर अच्छी-खासी लम्बी चौड़ी मुस्कान आ गई थी.. जब किन्नरों ने अपना कार्यक्रम समाप्त कर घर से जाते वक्त मुकेशजी को ज़ोर की आवाज़ में Bye! Dilip kumar! .. कहा था.. और भई!.. कहते भी क्यों नहीं.. आख़िर हमारे मुकेशजी भी दिखने में दिलीप साहब से कम थोड़े ही थे।

एक नई कहानी की शुरुआत एकबार इंदौर में एक गुड्डे और एक गुड़िया के साथ फ़िर से होने जा रही थी।

“ सोने की अंगूठियां गायब!”।

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