बबलू सुनीता को लेने एक बार फ़िर इंदौर आ गया था। ससुराल वालों का फ़र्ज़ अब मायके में पूरा होने जा रहा था.. कमाल की बात तो यह थी.. कि किसी ने भी फूटे मुहँ यह न बोला था,” अरे! नहीं! नहीं!.. प्रहलाद की ज़िम्मेदारी कर तो दी उन्होनें, अब ऐसे बार-बार अच्छा नहीं लगता है। इस बार यह शुभ काम इंदौर रहकर ही होगा”। पर ऐसा लग रहा था.. मानो सुनीता घर की बहू न होकर कोई रिश्तेदार हो.. जो थोड़े से दिन रहकर वापस जा रही हो। चलो! परिवार में कोई कमी हो तो मान लेते हैं.. कि बहु को मजबूरी के तहत मायके भेजा जा रहा है.. लेकिन जिन लोगों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान होता है.. वो चाहे कुछ भी हो जाय!.. अपनी ज़िम्मेदारी किसी और पर बिल्कुल भी नहीं डालते। खैर! तरह-तरह की दुनिया है।

पर इस बार रमेश ने सुनीता को दिल्ली में डिलीवरी का खर्चा देकर भेजा था, जो सुनीता ने घर पहुँचकर.. बड़े भाई.. सुनीलजी के हाथ में थमा दिया था। सुनीता बबलू के साथ सुरक्षित और समय से दिल्ली पहुँच गई थी। मुकेशजी का परिवार बेहद सज्जन और संस्कारी था.. बिटिया के मायके पहुँचते ही उसकी देख-रेख शुरू कर दी गई थी। जिस अस्पताल में प्रहलाद जन्मा था.. उसी में ही दोबारा से सुनीता की डॉक्टरी जाँच शुरू करवा दी गई थी। डॉक्टर साहिब ने सुनीता से कह दिया था,” जुड़वाँ बच्चे हैं.. एकदम सही ध्यान रखना अपना”। सुनीता का ct स्कैन वगरैह सब हो चुका था.. बच्चे गर्भ में एकदम सही सलामत दिख रहे थे। सुनीता भी रेगुलर checkup के लिये सही समय पर अस्पताल जाने लगी थी। घर में सुनीता का पूरे परिवार द्वारा ख़ास ख़याल रखा जा रहा था।

प्रहलाद सुनीता के साथ नानी के घर पर ही था.. प्रहलाद की दोस्ती अभिमन्यु, संस्कृति और छोटे सिद्धान्त के साथ अच्छी – खासी हो गई थी.. बस! उन्हीं के साथ खेल-कूद में लगा रहता था। प्रहलाद था, तो अभी छोटा.. पर उसे यह अहसास था.. कि माँ! उसके लिये भी कोई नए दोस्त लेने दिल्ली आईं हैं। एक दिन रात को अचानक से सुनीता को अजीब सा महसूस हुआ था.. उसने सोचा पेट खराब हो गया है.. दस्त वगरैह लग गए हैं.. पर ऐसा कुछ न निकला था.. सुनीता ने फ़ौरन अपनी माँ को जाकर जगाया था.. अनिताजी तुरन्त ही माजरा समझ गयीं थीं.. बेटे सुनील से कहकर गाड़ी निकलवाकर तुरंत ही अस्पताल पहुँच गए थे। डॉक्टर साहिबा भी अस्पताल के स्टाफ़ द्वारा फोन करने पर तुरन्त ही पहुँच गयीं थीं। “ अरे! यह क्या मज़ाक करा.. तुमनें सुनीता!.. पहले क्यो न पहुँची.. अस्पताल। तुम्हारा पेट ख़राब नहीं है.. बच्चे का सिर आ रहा है”।

डॉक्टर साहिबा ने जाँच के तुरन्त बाद सुनीता से कहा था। और तुरन्त ही सुनीता को लेबर रूम में शिफट कर दिया गया था। कुछ घंटों बाद एक बच्चे की रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी थी.. डॉक्टर ने सुनीता को ट्रे में रख एक नन्हा शिशु दिखाया था,” बेटी है!.. न डॉक्टर!”।

सुनीता ने ट्रे में अपनी जुड़वाँ बच्चो में से पहले जन्मी अपनी नन्ही परी से मुलाकात की थी.. जिसे वह देखते ही समझ गई थी.. कि यह मासूम उसकी अपनी परछाई उसकी नन्ही बिटिया थी। बाहर बैठे घर के सदस्यों को भी यह ख़बर मिल गई थी। लेकिन अभी एक बालक का आना शेष था। अब सुनीता की परेशानी ज़्यादा बढ़ गई थी.. बालक जन्म लेने में काफ़ी परेशान कर रहा था.. और जो प्राकीर्तिक स्त्री को पीढ़ा होती हैं.. वह भी ठीक प्रकार से नहीं हो पा रहीं थीं.. डॉक्टर ने सुनीता के सामने दूसरे डॉक्टरों से कहा था,” लगता है.. ऑपरेशन करना पड़ेगा”।

पर ईश्वर की लीला ऐसी हुई.. कि सुनीता के प्राकर्तिक दर्द बढ़ गए.. नार्मल तरीके से ही एक बालक ने जन्म लिया.. जन्म होते ही डॉक्टर ने सुनीता को बताया,” मुबारक हो! यह तुम्हारा बेटा है!”।

एक गुड्डा और एक गुड़िया दोनों को पाकर अब सुनीता बेहद खुश थी.. और एक बार फ़िर माँ बनने की खुशी में अपनी सारी पीढ़ा और तकलीफ़ भूल चुकी थी। मुकेशजी का सारा परिवार यह खुशखबरी पाकर बेहद खुश हो गया था.. मुकेशजी ने खुशी के मारे दोनों बच्चों का नामकरण भी कर दिया था.. भरत और नेहा। बहुत प्यारे नाम रखे थे.. बच्चों के नानाजी ने.. सभी घर के सदस्यों ने और बच्चों ने नामों को खूब सराहा था। घर में फिर एक बार ख़ुशख़बरी आ गई थी.. सुनीता की अस्पताल में अच्छी-खासी देख-रेख चल रही थी.. मुकेशजी ने एक बार फ़िर अपने नाना बनने की खुशी इंदौर में रमेश को दे दी थी। “ अरे! यह क्या!.. बच्चे के पैर!”।

भरत का पैर देखकर सब हैरान रह गए थे.. बच्चे का पैर एड़ी पर से मुड़ा हुआ था। डॉक्टर से तुरन्त ही सलाह करी गई थी..” बड़े होते- होते बालक का यह पैर बिल्कुल ठीक हो जाएगा.. कोई भी चिन्ता वाली बात नहीं है”। डॉक्टर साहिबा ने घर के सदस्यों को तसल्ली देते हुए बताया था।हाँ! भरत पैदा होते वक्त भी ठीक ढँग से नहीं रोया था.. पर इस बात को नार्मल बताते हुए कोई भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। अभी सुनीता अस्पताल में ही थी.. घर से सभी बच्चे प्रहलाद सहित अस्पताल में बुआ से मिलने आए थे। प्रहलाद अपने बहन व भाई को देख कर खुश हुआ था।

अनिताजी सुनीता के साथ ही अस्पताल में रहा करतीं थीं.. कमाल की बात तो यह थी.. की नेहा भूख में चिल्लाती थी.. और भरत का भूख प्यास का पता ही नहीं लग पाता था। आम शिशु भूख लगते ही रोने लग जाया करते हैं.. पर भरत का आम शिशु की तरह से कोई भी क्रिया नहीं हो रही थी। अनिताजी ज़बर्दस्ती भरत के मुहँ में चम्मच से दूध डलवाया करतीं थीं। जब बच्चे को नेचुरल भूख नहीं लग रही थी.. तो डॉक्टर को बता देना चाहये था.. पर विधि का विधान अटल था.. ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था.. इसलिये अनिताजी जैसी पढ़ी-लिखी और समझदार स्त्री के मुहँ से डॉक्टर साहिबा के सामने भरत को लेकर कुछ भी नहीं निकला था। “ कुछ नहीं है.. सब ठीक हो जाएगा”। अनिताजी अपने-आप ही डॉक्टरी नुस्ख़े सुनीता को बताये चल रहीं थीं। नहीं जानती थीं.. कि ख़ुदा को अब कुछ और ही मंज़ूर हो चुका था।

“ अरे! यह नीला पड़ जाता है. . फ़िर एकदम ही ठीक हो जाता है”।

केवल सुनीता ने ही कुछ पलों के लिये भरत को नीला पड़ते देखा था.. आख़िर क्या माजरा था.. कौन सा शिशु रोग हो गया था.. बालक को!

“ ये लो! भभूति!.. बच्चे को लगा देना!”। कुछ नहीं होगा!.. ठीक हो जाएगा.. भरत।

ये कौन सलाहकारी कर रहा था.. भरत को लेकर!.. और ईश्वर से ऊपर होकर किसको भगवान बता रहा था।

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