कुछ भी हुआ हो.. और रमेश कैसा भी हो!.. एक बार फ़िर सुनीता को लेने दिल्ली आ रहा था। रमेश को स्टेशन मुकेशजी और सुनील दोनों ही लेने जाने वाले थे। स्टेशन पर रमेश सुनीलजी को मुकेशजी के साथ देखकर एकदम सकपका सा गया था। सकपकाया हुआ रमेश एकदम ही बोल उठा था,” अरे! हा! हा! आप भी आएँ हैं.. ओहो! अच्छा! हाँ!”।
इतना तमाशा और गाली गलौच होने पर भी रमेश का अपने ऊपर से भरोसा कम न हुआ था.. पूरे कॉन्फिडेन्स के साथ रमेश अपने ससुर साहब और साले सुनील के साथ अब घर आ गया था। घर पर रमेश की अनिताजी और बाकी के घर के सदस्यों से भी मुलाकात हुई थी। क्या कुछ बिता था.. उसका अभी कोई भी जिक्र न था.. हमेशा की तरह से रमेश की ख़ातिरदारी की गई थी.. ख़ातिरदारी तो खैर! हो गई थी.. परन्तु रमेश का बनावटीपन सबको खल रहा था। मुकेशजी ने तो कहा भी था,” ये जो रमेश ज़ोर-ज़ोर से हा-हा-हा करके हँस रहा है.. और ऊँची आवाज़ में बात कर रहा है.. ये खोखलेपन की निशानी है”।
सुनीता इतना समझाने और ख़ुद पर बीतने के बाद भी रमेश से बार-बार खाने-पीने के लिये आग्रह कर रही थी.. और रमेश अपनी ही अकड़ में था। एकबार फ़िर सुनीलजी ने अपने भाई होने का फ़र्ज़ निभाते हुए सुनीता से कहा था,” जो आदमी स्वभाव से बदतमीज़ हो!.. उसके सामने किसी भी प्रकार का आग्रह नहीं किया जाता”।
सुनीता या कुछ ज़्यादा ही डरा हुआ महसूस कर रही थी.. या फ़िर ख्यालों की कोई नई चरखी उसके दिमाग़ में घूम रही थी.. जो इस वक्त सुनीता की सोच किसी की भी सोच से मेल नहीं खा रही थी। अनिताजी का दिमाग़ भी इस वक़्त रमेश को देख कर ठनका हुआ था.. पर बोलीं कुछ न थीं.. आख़िर घर का दामाद था, और फ़िर बिटिया ख़ुद कोई निर्णय न लेकर इसी महापुरुष के साथ आगे बढ़ना चाह रही थी। ठीक है!.. सब कुछ एक तरफ़ रख अब परिवार सुनीता के साथ हो गया था।
रमेश अभी दिल्ली में ही रुका हुआ था.. और उसका फ़िल्म देखने का मूड हो गया था.. “ मुझे यह पिक्चर देखनी है.. सब के साथ चलेंगें”। रमेश ने सुनीता को इस तरह से कहा था.. कि बस! कुछ भी हो.. यह फ़िल्म तो देखनी ही है।
अगर फ़िल्म देखनी थी.. तो रमेश और सुनीता चले जाते साथ में.. अब फ़िल्म रमेश को देखनी थी.. पर फ़िल्म की टिकट ज़बर्दस्ती ससुराल वाले करवाएं और साथ में फ़िल्म देखने भी चलें। हो न हो हर बार हर किसी भी काम के लिये रमेश का यूँ किसी न किसी के साथ में जाने का भी कोई कारण ज़रूर था.. जो आगे चलकर सुनीता के सामने आने वाला था।
खैर! दामादजी की आवभगत भी बहुत बढ़िया हो गयी थी.. और रमेश हमेशा की तरह अपने गाँव हरियाणे भी चक्कर लगा आए थे.. माँ-बाप ने पूरे रीति-रिवाज़ के साथ बिना कोई रमेश से सवाल-जवाब किये सुनीता को विदा करने की तैयारी कर ली थी। अभी सुनीता केवल एक ही बात को लेकर परेशान थी… कि, इंदौर जाकर क्या होगा!
सुनीलजी ने आगे बढ़कर बिना अंजाम की परवाह किये भाई का फ़र्ज़ अदा करते हुए सुनीता से कहा था,” अगर मेरे बारे में कोई कुछ पूछे या फ़िर तुमसे फ़ोन वाली बात को लेकर कोई सवाल-जवाब करे तो निःसंकोच होकर कह देना की.. अरे! बोल दिया होगा फ़ोन पर कुछ.. ऐसे ही हैं.. भाईसाहब!”।
सुनीलजी का सुनीता से इतनी बड़ी बात कहना भी कोई आसान न था.. सुनीता से.. इस प्रकार का बहन को सपोर्ट देने के लिये भी बड़प्पन चाहये.. जो सुनीलजी में हमेशा से मौजूद था।
रमेश और सुनीता अब इंदौर पहुँच गए थे.. सुनीता ने हमेशा की तरह ही सासू-माँ के आगे मायके से लाए हुए अपने तोहफ़े और उनके लिए लाया हुआ बढ़िया सूट का कपड़ा उन्हें दे दिया था। बीती हुई किसी भी बात का सासू-माँ ने सुनीता से कोई भी ज़िक्र नहीं किया था.. सुनीता इस वक्त प्रहलाद और रमेश के संग अपने कमरे में खुश थी।
“ फोना पर म्हारे गेल बक़वास करण वाले कोन होते हैं.. हम कोई उठाए गिरे नहीं हैं!”।
अरे! इतने रूखे और बदतमीज़ी भरे अंदाज़ में कौन।बोला था.. अब ये वाला वार कैसे झेलेगी.. सुनीता!.. या एक बार फ़िर क़दम डगमगा जाएंगे.. और डर के मारे ज़बान कुछ का कुछ उगल देगी।