सुनीता माँ की देख-रेख में अब दिल्ली पहुँच गई थी। मुकेशजी का परिवार छोटा और संस्कारवान था, इसलिये बेटी अपने मायके में आराम से रह रही थी। मुकेशजी के परिवार में अभी केवल उनका एक ही पोता अभिमन्यु था, जो अभी चार वर्ष का ही था। मुकेशजी की एक ही फैमिली डॉक्टर साहिबा थीं.. जो स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं, मुकेशजी के परिवार में से उनका पहला पोता “ अभिमन्यु” उन्हीं के यहाँ ही जन्मा था। सुनीता आराम से पिता के घर में नए मेहमान को लाने की तैयारी में लग गई थी। डॉक्टर साहिबा के पास हर महीने रेगुलर चेक-उप कराने जाना.. और डॉक्टरनी जी के कहे हुए सारे नियम मान रही थी। डॉक्टर साहिबा का कहना था,” ज़्यादा घूमने-फ़िरने और योगा करने से बच्चा साधारण गर्भ से ही जन्म लेगा, वरना आपरेशन करना पड़ सकता है”।

सुनीता ने अधिक घूमना-फिरना और योग आसान शुरू कर दिये थे, ताकि गर्भ आपरेशन से न होकर साधारण तरीके से हो।

अब सुनीता का आख़िरी महीना आ गया था.. वैसे तो रमेश ने नियमित रूप से सुनीता के हाल-चाल पूछे थे। सुनीता ने रमेश को अपने आख़िरी हफ़्ते जिसमें की घर में नया मेहमान आने वाला था, बता दी थी। रमेश दर्शनाजी के साथ हमेशा अपनी पुश्तेनी ज़मीन के काम के सिलसिले में हरियाणे आया-जाया करता था.. साल में एक बार तो माँ-बेटा ज़मीन के हिसाब को लेकर हरियाणे गाँव का एक चक्कर ज़रूर लगाते थे। रामलालजी ने तो कभी भी अपने छोटे भाईयों से अपनी ज़मीन के हिस्से के बारे में पूछा तक न था। सुनीता का कहना था,” इंदौर वाले बाबूजी कहतें हैं, मैने अपनी मेहनत से इंदौर में बहुत कमा रखा है, मैं अपने पुरखों की ज़मीन में से अपने भाईयों से हिस्सा कभी-भी नहीं माँगूँगा”।

सुनीता ने रामलालजी को कभी-भी भी गाँव में हिस्से को लेकर बात-चीत करते नहीं सुना था, और न ही कभी विनीत जी को ही हरियाणे की ज़मीन जायदाद को लेकर चर्चा करते देखा था। विनितजी और रामलालजी का ध्यान केवल फैक्ट्री में ही लगा रहता था। इधर रमेश और दर्शनाजी का दिमाग़ चारों तरफ़ काम किया करता था.. रमेश का दिमाग़ तो केवल दर्शनाजी के ही हिसाब से काम करता था.. क्योंकि पैसे-धेले का इंतेज़ाम तो केवल माँ ही किया करती थी, चाहे वो रामलालजी से कहकर करवाये या फ़िर हरियाणे से। हरियाणे में रामलालजी का ज़मीन का हिस्सा रामलालजी के भाई ही करते थे, यानी के रामलालजी के ज़मीन के हिस्से पर खेती उनके भाई कर रहे थे, और ज़मीन की आमदनी का सालाना हिस्सा रामलालजी का बनता था, जो वे कभी खुद लेने भी न गए थे, और न ही कभी उस हिस्से का ज़िक्र ही किया करते थे। इस साल भर के हिस्से का हिसाब-किताब दर्शनाजी रमेश के साथ हरियाणे गाँव जाकर खुद ही किया करतीं थीं, रामलालजी की उन्हें कोई भी रोक-टोक न थी। ज़्यादातर माँ- बेटा हिसाब- किताब करने और अपने रिश्तेदारों से मिलने सर्दियों में ही आया-जाया करते थे। पर इस बार क्योंकि नए मेहमान का आगमन होने जा रहा था, इसलिये दर्शनाजी और रमेश जाड़ों में न आकर अभी गर्मियों में ही आ रहे थे।

डॉक्टर साहिबा के हिसाब से सुनीता के माँ बनने में केवल एक हफ़्ता ही बाकी रह गया था। और यहाँ दिल्ली में दर्शनाजी और रमेश का आगमन भी हो चुका था। जब भी दर्शनाजी दिल्ली आया या जाया करतीं थीं, तो उनका केवल एक ही डॉयलोग हुआ करता था,” क्या करूँ तबियत ठीक ही नहीं रहती”। दर्शनाजी हर आदमी के आगे अपनी तबियत का रोना ज़रूर रोया करतीं थीं, उनकी आदत में ही शामिल हो गया था..  हालाँकि तबियत एकदम मस्त थी, फ़िर भी पता नहीं कौन सा रोना लगा कर रखतीं थीं तबियत का। तबियत नहीं उनके बात करने का अंदाज़ ही कुछ इस तरह का था, कि सामने वाले के सामने बात की शुरुआत ही ख़राब तबियत से ही करनी है। अपने-आप को दिखाने का दर्शनाजी का यह अलग ही अंदाज़ हुआ करता था.. शायद यह उनकी सोच थी, कि अपने आप को बीमार घोषित कर वह सामने वाले वयक्ति का अपनी तरफ़ अधिक ध्यान आकर्षित कर सकेंगीं.. पर ऐसा होता नहीं है, सबको सब पता होता है, कोई बोले नहीं वह बात अलग होती है। आख़िर रिश्तों की बारीकी भी कोई चीज़ हुआ करती है।

सासु माँ और सुनीता रानी के पतिदेव अब दिल्ली मुकेशजी के घर पर पधार चुके थे। दोनों माँ बेटों की हमेशा की तरह जमकर ख़ातिर दारी की गई थी, हालाँकि जब भी कोई दिल्ली से इंदौर जाया करता था, तो इस तरह इंदौर में मेहमानों की ख़ातिरदारी का रिवाज़ न था.. पर मुकेशजी अपने संस्कारों और असूलों से कभी पीछे न हटे थे, फ़िर सामने वाले कि फ़ितरत कैसी भी हो।

खैर! ख़ातिर होने के बाद दोनों माँ-बेटा मुकेशजी के घर पर ही एक रात के लिये रुके थे.. और अगले ही दिन अपने हरियाणे गाँव के लिये रवाना हो गए थे।

रमेश इस बार सुनीता से मिलकर खुश था, उसकी खुशी में एक नई खुशी आने का अंदाज़ा साफ़-साफ़ हो रहा था। और खुश होता भी क्यों न.. आख़िर रमेश अब एक नई ज़िम्मेदारी यानी के बाप बनने जा रहा था।

सुनीता भी अपने माँ बनने के अहसास से बेहद खुश थी, और इस वक्त तरह-तरह के विचारों से घिरी हुई थी.. राजकुमार आएगा या फ़िर नन्ही राजकुमारी का आगमन होगा।

रात बहुत हो चुकी थी, और अगले दिन रविवार था, सुनीता को अपने अन्दर से ही किसी नव जन्म के आने का आभास हो आया था, पर यह सोचकर आराम से सो गई थी, की सवेरे ही माँ को बताएगी। पहली बार माँ बनने का अहसास जो था, क्या करना है, कैसे करना है.. इसकी समझ अभी सुनीता को न थी।

एक कहावत है, और यह कहावत कुछ हद तक सही भी है.. अगर किसी जगह पर बिल्ली बच्चे दे दे या फ़िर अपनी जेल छोड़ जाए तो बहुत शुभ होता है, यानी उस जगह पर कुछ अच्छा होने वाला होता है। सुनीता के घर के पड़ोस में ही रविवार की सुबह बिल्ली ने नन्हे-नन्हें प्यारे बच्चों को जन्म दिया था। सुनीता ने अपनी माँ को रात को हुए अहसास के बारे में सुबह होते ही बता भी दिया था, जिस पर अनिताजी ने कहा था,” अरे! रात को ही क्यों न बता दिया था तुमनें, जल्दी करो! अस्पताल पहुँचना है!”।

अब अस्पताल जाने से पहले सुनीता के नाश्ता खाने की बात आई थी.. माँ,अनिताजी ने पूछा था,” क्या नाश्ता वगरैह खाकर अस्पताल चलना चाहती हो!”।

सुनीता को एक बात हमेशा ही अच्छे ढँग से याद रहा करती थी.. की कौन से दिन या कौन से महीने उसने या फ़िर किसी और घर के सदस्य ने क्या खाया था। खाने-पीने की बेहद शौकीन मिज़ाज़ रही थी, सुनीता बचपन से। बस! तो फ़िर क्या था, नाश्ते की बात पर सुनीता को याद आ गया था, कि,” जब बड़े भाई साहब के सुपुत्र यानी के अभिमन्यु इस दुनिया में पधारे थे, तो सबनें खूब जमकर कचौड़ी, पूड़ी का आनन्द उठाया था, मस्त भोजन का स्वाद चखने के बाद ही अभिमन्यु महाराज ने इस दुनिया मे कदम रखा था। इसी बात को याद रखते हुए, सुनीता ने माँ से कह दिया था,” माँ! मैं भी कोई साधारण नाश्ता खा-कर अस्पताल के लिये न जायउँगी.. मेरे लिये भी खीर, कचौड़ी पकानी होंगी”।

अनिताजी बिटिया सुनीता की बात पर मुस्कुराए बग़ैर न रह पाईं थीं, और बोलीं,” ठीक है, मैं खीर कचौड़ी तुम्हारे लिये बनाये देती हूँ, तुम अभिमन्यु के कुछ छोटे कपडे लेकर अस्पताल चलने की तैयारी करो”।

अनिताजी रसोई घर में सुनीता व घर के अन्य सदस्यों के लिये खीर-कचौड़ियाँ बनाने का प्रबंध करने लग गईं थीं.. और दूसरी तरफ़ सुनीता ने अभिमन्यु अपने भतीजे के छोटे वाले कपड़े बैग में माँ के कहे अनुसार रख लिये थे।

खीर कचौड़ी का आनंद उठा अब सुनीता भी अपनी माँ और सुनीलजी के साथ अस्पताल जाने को तैयार थी। छोटा भतीजा अभिमन्यु भी हीरो बनकर अपनी बुआ को लेकर अस्पताल जा रहा था।

घर से निकलते वक्त अभिमन्यु की बालक बुद्धि ने शोर मचाया था,” हम अपनी बुआ के साथ काका लेने जा रहे हैं”।

बिल्ली के छोटे-छोटे बच्चों का जन्म लेना, या फ़िर नन्हें से बच्चे का शोर मचाना..  क्या वाकई सुनीता काका लेने जा रही थी, या फ़िर कोई राजकुमारी आने को तैयार थी। बालक या बालिका के जन्म की ख़बर सुनने के बाद किस तरह का स्वागत होगा दर्शनाजी और रमेश की तरफ़ से.. जो ख़ुद भी यह ख़बर सुनने को तैयार थे।

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