” तेरे धोरे किमे तो होगा..!! बेटी एक फूटी कौड़ी नहीं है! घर में!”।

दर्शनाजी ने रमेश के ख़र्चे के लिए पैसे देने से मना करते हुए.. कहा था। सुनीता का अंदाज़ा एकदम सही निकला.. दर्शनाजी और विनीत शुरू से एक ही निकले थे.. पिता को दिए हुए.. वचन,” घर बसा कर दिखाओ” और अपने संस्कारों से मुहँ न मोड़ते हुए.. सुनीता अपने गहने बेच देती है.. थोड़ी मदद मायके से भी मिल जाती है.. पैसा जमा कर रमेश का इलाज हो जाता है.. गिने दिनों में रमेश अस्पताल से वापिस घर आता है..

” पैसे कहाँ से आए थे..!”।

रमेश यह सवाल सुनीता से पूछ बैठता है।

सुनीता रमेश के आगे सब कुछ बता डालती है.. सुनते ही रमेश माँ के पास भागता है..

” पिसे क्यों न निकले.!”।

” थे ही नहीं..!”,

” हाँ! बकवास सै सब..!”।

” मेरा हिस्सा कोनी.!”।

रमेश की माँ के साथ पैसों और हिस्से को लेकर कहा-सुनी हो जाती है.. पर रमेश को सही जवाब नहीं मिलता।

धीरे-धीरे पैसों के खिलाड़ी सुनीता और रमेश का बचा-कुचा समान भी बिकवा देते हैं.. समय के साथ रमेश की आँखे घरवालों की तरफ़ से खुल जातीं हैं। पुश्तेनी ज़मीन पर रामलालजी के भाईओं का कब्ज़ा हो जाता है.. जिससे दोनों भाई हाथ धो बैठते हैं। सुनीता भी अपना बिता हुआ कल भुलाकर किसी वसीयत पर नहीं बल्कि अपनी काबलियत और हिम्मत पर विश्वास रखते हुए… रमेश के साथ दोबारा से घोंसला बनाने का फ़ैसला ले लेती है।

रमेश और सुनीता बच्चों को लेकर घर छोड़ देते हैं.. सुनीता बच्चों की आँखों में पिता के लिए भी चाहत महसूस करती है। परमात्मा रमेश को बच्चों और सुनीता के नाम की सदबुद्धि देते हैं.. रमेश कड़ी मेहनत से अपना अलग और नया व्यवसाय जमा लेता है।

पिता का आशीर्वाद और सुनीता का अपने ऊपर विश्वास जीत जाता है। 

अपने पिता को दिए हुए.. वचनो,” घर बसा कर दिखाओ” पर सुनीता एकदम खरी उतरती है.. लाख नाटकों और तमाशों पर भी परमात्मा के और माँ-बापू के आशीर्वाद से सुनीता का नया घोंसला तैयार हो जाता है।

बाज़ीगर के लिबास में सुनीता रमेश के संग जीवन के इस नए सफ़र में एकबार फ़िर संग चलने का फ़ैसला लेते हुए.. एक लंबी उड़ान भरती है.. यह उड़ान किसी वसीयत पर नहीं! बल्कि काबलियत के पंखों पर होती है।

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