” घर आ रही है! न!”।

माँ ने सुनीता से फोन पर पूछा था.. बात अनिताजी के सामने की थी।

” हाँ! माँ!  सामान का इंतज़ाम देख लूँ.. फ़िर आ जाऊँ गी! अब दोनों बच्चे मेरे साथ आइएंगे.. घर अकेला रह जाएगा.. सोचना तो पड़ता ही है! बताउं-गी.. मैं आपको इंतज़ाम करके!”।

” हाँ! ठीक है.. कर ले सामान का इंतज़ाम फ़िर बता देना.. इंतज़ाम के बगैर आना ठीक नहीं है.. अपना बेच-वेच के छुट्टी करेगा!”।

इसका मतलब अनिताजी भी दामाद के बारे में जान चुकीं थीं.. फ़िर ऐसा करके सुनीता रमेश जैसे तेज़ और शातिर दिमाग़ इंसान से कब तक इन इंतज़ाम को करके बचती! पर क्योंकि अनिताजी पूरी तरह से ईश्वर को ही समर्पित थीं.. इसलिए.. वह बिना दिमाग़ लगाए, केवल यही सोचतीं थीं.. जो कुछ हो रहा है! ऊपरवाले की मर्ज़ी से हो रहा है.. इसमें किया कुछ नहीं जा सकता.. बस! जो भी होता है.. देखते चलो! और बिना दिमाग़ लगाए… ठीक वैसे ही करते चलो।

खैर! सीधी-साधी संस्कारवान महिला थीं.. अपने जीवन में कभी चोरी और फ़रेब देखा नहीं था.. अपने जैसा ही दूसरों को भी समझतीं थीं.. अक्सर सीधे और नेक लोगों के साथ ही धोखा हो जाता है.. यह कोई नई कहानी नहीं है।

जैसे-तैसे अपने कमरे में रखे हुए.. सामान को इधर-उधर कर सुनीता ने मायके जाने का इंतेज़ाम किया और गहनों को अपने संग ही ले जाने का फैसला ले लिया था.. छोटा-मोटा सामान जेठानी के कमरे में रखवा अपने-आप को होशयार समझ बैठी थी..  सुनीता!

” यो गोल्ड ले जागी!!”।

” ये बैग चैक करवाना..!”।

लो हो गया.. जम कर तमाशा.. जुड़ें रहें खानदान के साथ।

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