एक दिन का रमेश का खर्चा अब पाँच-सौ रुपए से नीचे नहीं था.. अपने-आप को फैक्ट्री का मालिक दिखाने के लिए.. कोई भी तरीका अपनाने को तैयार हो गया था। फैक्ट्री के मालिक से रमेश का मतलब.. कम से कम एक ही शाम के हज़ार रुपए उड़ाने से था। बोलता भी था..

” हम कोई भूखे-नंगे हैं.. क्या..!!”।

दुनिया को चौधरी बनकर दिखाने में ही रमेश सबसे ज़्यादा विश्वास करने लगा था। रामलालजी भी तो थे.. जिन्होंने कारोबार खड़ा करने में जान डाल दी थी.. उन्हें तो किसी ने भी नहीं देखा था.. रोज़ शाम को ऐसे पैसे उड़ाते हुए। बता देती किसी को यह बात भी सुनीता! शायद कहीं से कोई राय या फ़िर समस्या का समाधान निकल ही आता.. बताया था.. सुनीता ने माँ को, पर उन्होंने बात को अलग ही ढंग से सफ़ाई देते हुए.. पेश किया था..

” अरे! फ़िर क्या हुआ.. यह इतना सोचने वाली बात नहीं है! रमेश को चाट-पकौड़ी खाने का शौक है.. शौकीन मिज़ाज़ आदमी है!”।

ऐसा भी क्या शौक हो गया था.. भाई! हज़ारों की गड्डियाँ फटाफट ठिकाने लगाए जा रहा था.. अब एकबार माँ की ज़मीन बेचकर जून के महीने में ही तीन-लाख रुपए मारकर लाया था.. पर ऐसा बिज़नेस किया.. कि दिवाली पर रमेश जैसे फैक्ट्री के मालिक के पास बच्चों की मिठाई लाने के भी पैसे नहीं थे।

रमेश की गाड़ी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी..  अब रमेश की नज़र कमरे में भी चारों तरफ़ दौड़ने लगी थी.. कहाँ से क्या सामान उठाना है!

सुनीता को रमेश पर शक हो गया था.. चाहे कोई करवा रहा हो! और चाहे वो ख़ुद से कर रहा हो! पर अलमारी के अंदर से गहने तक निकाल कर या निकलवाकर बेचे गए थे.. खाने -पीने के सामान की भी सिक्योरिटी टाइट रखनी पड़ रही थी।

और बच्चे कमरे में या फ़िर सुनीता ड्यूटी पर बैठने लग गये थे।

कुछ हासिल नहीं होने वाला था.. इस बे सिर पैर की ड्यूटी से.. फालतू का डर बैठा लिया था.. मन में..

” सामन को कहाँ रख कर आएगी..!!”।

देख लिया.. ड्यूटी का यह मामला कहाँ का कहाँ पहुँच गया।

जुड़े रहें.. खानदान के साथ।

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading