” मेरे पास सिर्फ़ सौ रुपए हैं!”।

यह डायलॉग रमेश ने सुनीता के ब्याह के तुरंत बाद ही बोल दिया था.. जब वह उसे पहली बार पगफेरे के बाद इंदौर ले जाने आया था.. उस वक्त इस डायलॉग का मतलब ही क्या हो सकता था.. भई! अच्छे खासे बिसनेस मैन थे.. रामलालजी! घर में पैसे-धेले की भी कमी नहीं थी.. फ़िर…!!

” घर में पैसे ख़त्म हो गए हैं! पर मुझे वैष्णो देवी जाना है!”।

रमेश का कहना था।

मुकेशजी ने रमेश की बात वहीं पकड़ ली थी..  पर नियति को कुछ और ही मंजूर था.. यह सिलसिला आगे चलता ही चला गया था.. और यह सौ रुपए.. दर्शनाजी की जमीनों के बिकने में कहीं दबते चले गए थे। ज़मींनो के बिकने का पैसा लगातार रमेश के बैंक में भरता ही चला जा रहा था.. जिसमें यह सौ रुपए का पत्ता दबता ही चला गया था.. आज अनिताजी के स्वर्गवास के बाद उनके लिए हो रही पूजा में इस सौ रुपए के पत्ते ने रिश्तेदारों के सामने एकबार फ़िर से जन्म लिया था।

” मुझे कोई कुछ नहीं देता!.मेरे पास सिर्फ़ सौ रुपए ही होते हैं!”।

चल रही पूजा के कार्यक्रम में रमेश ने रिश्तेदार से बोला था।

क्या यह सब बातें करने का यह सही वक्त था.. ये सौ रुपए अब याद आए थे.. बीच में इतने नोट भर-भर कर आते चले गए थे.. तब सौ रुपए संभाल कर क्यों नहीं रखे थे। सुनीता को तो पैसे सम्भालवाने थे..

” आप बैंक में बच्चों के नाम कुछ कर दो! पैसा काम आता है.!”।

सुनीता ने रमेश को समझाने की कोशिश करते हुए.. कहा था।

” बस! बस! तेरी कमाई का पैसा है.. क्या.. ! या तेरा कुछ हिस्सा है! इसमें..!! मेरी चीज़ है..! मैं लाया था! आईन्दा से मुझे चलना मत सिखाना..!! ख़ुद तो खड़े होना सीख ले!”।

वाह! रमेश बाबू वाह..! क्या ख़ूब कहा आपने धर्मपत्नी जी से! अपने घटिया पन का एक और नमूना पेश कर दिया आपने..! शाबाश!!

तब रमेश बिसनेस कर रहा था.. जिसका पूरी तरह से पता सुनीता को अब इतने सालों बाद चल पाया था। इतना चिल्ला कर और पूरे आत्मविश्वास के साथ हमेशा से ही बोलता आया था.. रमेश!

” एक दिन के पाँच हज़ार रुपए कमा कर दिखा दूँगा..!! हमारा बुड्ढा बीच में न हो तो!”।

रमेश चिल्ला कर अपने पिताजी के लिए अक्सर बोला करता था.. भाषा में ही संस्कार झलकते थे… पर हमारे यहाँ यही तरीका है! बात करने का.. कहकर ढक दिया जाता था।

ये हर बार लड़की बदल कर .. और सामान बेचकर .. कौन सा बिज़नेस चल रहा था.. क्या अंजाम होने वाला था.. नाटकों का..

” असली चोर पकड़ा जाता है..! हिम्मत रख! हार के जीतने वाले को सिकंदर कहते हैं..!!”।

सुनीता के कदम पीछे सरके थे.. पर धीरे से इस आवाज़ ने एकबार फ़िर एक कदम रमेश के साथ आगे चलने पर मजबूर कर दिया था..

यह कौन सी आवाज़ थी.. जो इतने नाटकों पर भी सुनीता की हौंसला अफ़ज़ाई कर रही थी.. ऐसा लग रहा था.. जैसे खिलाड़ी बुरी तरह से boxing रिंग में पिट रहा हो..! पर दस की गिनती पूरी होने से पहले ही उठा कर फ़िर से लड़ने के लिये तैयार किया जा रहा हो..

खिलाड़ी की हिम्मत और सोच को सलाम करते हुए.. जुड़े रहते हैं.. खानदान के साथ।

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