अपनी माँ के दुःख के संग.. एकबार फ़िर सुनीता ने रामलालजी के नाटकीय मंच में कदम रखा था। प्रहलाद का दाखिला तो हुआ ही नहीं था.. पर उसनें अपना मन-पसंद काम वहीं इंदौर में ही शुरू कर दिया था। रमेश की नज़र प्रहलाद पर ही थी..
” कहाँ जाता है! ये!”।
” पता नहीं!”।
सुनीता का रमेश को जवाब था।
किस तरह का व्यक्ति था.. रमेश! और क्यों.. सोचने वाली बात थी.. सुनीता के साथ इतने साल बिताने पर भी अभी तक आदमी की तस्वीर का साफ़ न होना हैरानी का विषय प्रतीत हो रहा था।
खैर! कोई बात नहीं! कहा जाता हैं! ज़िन्दगी में गच्चा! खा जाते है.. धोखा हो जाता है! शातिर दिमाग़ इंसान अपने बारे में पता नहीं चलने देता.. शरीफ़ और संस्कारवान मारा जाता है।
वैसे देखा जाए तो! जब सुनीता ने भाँप ही लिया था.. कि कुछ ठीक नहीं है! तो अपने मन की आवाज़ को दबा कर किस रिवाज़ के सहारे चुप बैठी रही. .. इन सब तमाशों में सुनीता भी बराबर की ही भागीदार थी.. नाटक को सहने वाला भी बराबर का ही दोषी माना जाता है.. जितना कि करने वाला।
पर क्या किया जा सकता था.. नाटकों में ही उम्र कट रही थी..
” मैं बिसनेस मैन हूँ! बिज़नेस माइंड रमेश को समझने के लिए.. खानदान के इस सफ़र के साथ चलते रहिये।