प्रहलाद का बैंगलोर दाखिला नहीं हो पाया था.. सुनीता और प्रह्लाद दाखिला न होने से बेहद निराश हो गए थे.. पर इस बात का रमेश पर कोई भी फ़र्क नहीं पड़ा था। एक तरह से रमेश प्रहलाद के दाखिला न होने की वजह से ख़ुश था.. सोच तो वही थी,” चलो! हिस्से के पैसे बच गए!”।
पर रमेश का इरादा अभी-भी वही था.. बैंगलोर एडमिशन के नाम पर ज़मीन के पैसे खाए जाएँ।
एक या दो बार रमेश ने गाँव यही बात लेकर फ़ोन भी किया..
” अरे! और पैसे माँगें सैं! भेज दे ने!”
रमेश को गाँव में बैंगलोर ऐडमिशन के नाम पर और पैसे की फ़ोन पर बात करते प्रहलाद ने सुन लिया था.. और बच्चा घबरा गया.. यह बात सुनीता के कानों में प्रहलाद ने फटाक से डाली थी।
” अरे! ये तो बैंगलोर के नाम के पैसे ले-ले कर खा जाएंगे! मान लो! मेरा फ़िर कहीं नंबर लगता है.. तो पैसे तो ये माँग-माँग कर खा चुके होंगें”!
लड़के ने घबरा कर माँ के आगे बोला था।
” मैं सोच रहा हूँ! हरियाणे फ़ोन कर… उन चाचाजी से सही बात बता देता हूँ! उनका नंबर भी मेरे पास है!”।
सुनीता चुप-चाप बिना ही कोई जवाब दिए.. प्रहलाद की बात सुन रही थी.. उसे भी वही लग रहा था.. जो बच्चा कह रहा था.. और सच में प्रहलाद ने मासूमियत में गाँव में फ़ोन लगा डाला था..
” चाचाजी आप पापा को पैसे बिल्कुल भी मत देना.. अभी बैंगलोर का कोई भी काम नहीं है!”।
बच्चा तो अनजान था.. बच्चे को क्या पता था.. कि पैसे यानी के हिस्सा ही तो नहीं मिलना है.. और प्रहलाद के फ़ोन ने सीधी मदद का काम किया था.. हिस्से को लेकर!’।
यहाँ विनीत पैसों को लेकर हाथ खींचता जा रहा था। रमेश अपने आप को पहले रखते हुए.. अब घर में सब्जी लाने में भी आना-कानी करने लगा था।
” नहीं हैं..!! मेरे पास पैसे..!! पीछे जाकर डंडा दे.! तू चिल्ला..!! चिल्ला..!!”।
थोड़ी सी बच्चों की सब्जी लाने के पीछे रमेश इतनी बुरी तरह से प्रहलाद के कान में चिल्लाया था.. कि उसनें कानों में रुई ही डाल ली थी.. रमेश के चिल्लाने में उसकी बदतमीज़ी साफ़ झलक रही थी..
” मैने दिल्ली की टिकट करवा ली..!”।
हम भी इसी परिवार के सदस्य के साथ दिल्ली चलते हुए.. कहानी को आगे बढाएंगे खानदान में।