अभी थोड़ी सी देर के लिए मामला शांत हो गया था.. और लोग समझ गए थे, कि सुनीता अपनी ग़लती बिल्कुल भी नहीं मानेगी। हाँ! बहस के दौरान सुनीता ने सबके सामने यह ज़रूर कहा था,” वो क्यों बैठ कर घूमेगी हमारे दादू की गाड़ी में!”।

सुनीता को रंजना का रमेश के संग गाड़ी में बैठकर घूमना बिल्कुल भी रास नहीं आ रहा था..  सीधे-सीधे बात को न रखते हुए, रंजना ने स्वर्गीय रामलालजी का सहारा लिया था.. जिन्हें सारा घर दादू ही कहा करता था.. और रमेश जिस गाड़ी में रंजना को लेकर पूरे इंदौर के चक्कर काटा करता था.. वो उन्ही की थी। गाड़ी के पहिये पंक्चर करने के पीछे सुनीता के दिमाग़ में रंजना और रमेश का रोज़ का तमाशा था.. कोई भी औरत अपने आदमी को किसी और के साथ कभी नहीं देख पाती.. यह बात जग जाहिर है। विनीत और दर्शनाजी को समझदारी दिखाते हुए.. रमेश से गाड़ी की चाबी ले लेनी चाहिए थी.. अब जब सच का पता ही था.. तो सुनीता को भी सही समझा-बुझाकर बात को रफा-दफा कर देना था। लेकिन परिवार के सदस्यों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था.. बल्कि यहाँ तो राजा के घर में पहियों को ठीक करवाने के लिये मोतियों की चिंता हो गई थी.. यानी पैसे कहाँ से आएँगे। और बात तो सही थी.. दो-दो फैक्ट्री वालों के घर दो गाड़ी के पहियों का पंक्चर ठीक करवाना आसान बात तो थी नहीं.. तो बस! सुनीता का साथ न देते हुए, घटिया लोगों ने अपना घटिया दिमाग़ लगा डाला था।

थोड़ा बहुत आईडिया तो रखती थी.. सुनीता रमेश की हाथ की सफ़ाई का.. पर रमेश बाबू किस हद तक होशयारी दिखा जाएंगे.. यह अंदाज़ा न था। रमेश को सुनीता के बारे में यह अंदाज़ा था, कि वो दिन में पूरे एक घन्टे के लिये घर से बाहर घूमनें के लिये और अपने पालतू कुत्ते को घुमाने के लिये निकलती है। या तो यह बात मम्मीजी ने अपने लाड़ले सुपुत्र को बता रखी थी.. या फ़िर रमेश ने सुनीता के मुहँ से ही सुनी होगी। खैर! जो भी हो उस दिन रमेश ठीक सुनीता के बाहर अपने कुत्ते को ले जाने से पहले ही घर पहुँच गया था। हालाँकि सुनीता को रमेश के यूँ दिन में बीच में आने पर थोड़ा सा शक तो हुआ था.. क्योंकि वो ऐसे बीच में आता नहीं था.. पर सुनीता ने अपने दिमाग़ के घोड़ों को ज़्यादा तेज़ नहीं दौड़ाया था। थोड़ा बहुत शक होने के कारण अपने बच्चों को कमरे में बैठा सुनीता कुत्ते को घुमाने निकल गई थी.. थोड़ी सी दूर आगे जाकर जब सुनीता ने अपनी गर्दन पीछे की तरफ़ घुमाई थी.. तो रमेश सुनीता को जाता देख रहा था।

रमेश को देखते ही सुनीता के दिमाग़ की शक की सुई तुरंत घूमी थी..  और तकरीबन दस मिनट के अंदर ही सुनीता भागी-भागी घर वापस आ गई थी।

” तू मेरे फैक्ट्री जाने के बाद मेरे कागज़ों को और मेरे कपड़ों की पॉकेट चैक करती है!”।

” मैं अच्छी तरह से जानता हूँ! तू क्या चीज़ है!”।

रमेश और सुनीता में भयंकर रूप से कहा-सुनी शुरू हो गई थी। शायद रमेश उस वक्त अपनी कोई करनी छुपाने की कोशिश कर रहा था। जिसको उसनें झगड़े का रूप दे दिया था। आख़िर कौन सी कलाकारी कर बैठा था.. रमेश! सुनीता की दस से पंद्रह मिनट की गैर-हाज़िरी में। अब रमेश अपनी अक्ल से तो काम करता ही नहीं था.. और गाड़ी के पहियों में भी पंक्चर लगवाने थे.. कलाकारी और शख्स का नाम जानने के लिये ज़रूर पढ़िये खानदान।

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