रमेश काफ़ी देर से घर आने लगा था.. सुनीता को डर के मारे बुरी तरह से चिन्ता हो जाया करती थी.. परिवार में और कोई भी साथ देने वाला नहीं था.. सभी मज़े लेने वाले दर्शक थे। इसी तरह के तमाशों के चलते एक बार रमेश पूरे दो दिन  बाद घर में दाख़िल हुआ.. सुनीता का ग़ुस्सा काबू से बाहर हो गया था। अब रमेश रामलालजी की गाड़ी में रंजना को लेकर घूमनें लगा था। सुनीता रमेश को घर आया देखकर ग़ुस्से मे लाल-पीली होकर तेज़ी से अपनी माँ अनिताजी को फोन करने भागी थी। अनिताजी और मुकेशजी को रमेश और रंजना के नाटकों की पल-पल की ख़बर थी।

“ माँ! वो रात को घर न आकर रंजना के साथ रुके थे”।

सुनीता ने परेशान स्वर में अनिताजी से बात करी थी।

“ कोई बात नहीं.. उसे जाने दे! जहाँ जाता है.. तू आराम से रह.. कोई कहीं नहीं भागता.. लौटकर घर ही आएगा!”।

सुनीता ने फ़ोन पर अपनी माँ की बातें सुन तो लीं थीं.. और उनके समझाने पर समझने का नाटक भी कर दिया था.. पर अभी-भी फोन पर बात करते हुए, सुनीता का दिमाग़ बिल्कुल भी शांत नहीं हुआ था। अनिताजी ने फ़ोन मुकेशजी को पकड़ा दिया था.. एक पिता ने अपनी बेटी को समझाते हुए, कहा था..

“ रमेश को भूल कर अपने आप पर ध्यान दे.. और कोई काम शुरू कर! उसको जहाँ भी जाना है.. जाने दे! पैसों के लिये रमेश पर निर्भर मत रह”।

माँ और पिताजी की बातें सुनकर सुनीता चुप-चाप घर आ गई थी। पर सुनीता के मन से रमेश के रात को रुकने वाली बात दिमाग़ से नहीं निकली थी। माँ और पिताजी के समझाने का कोई भी फ़ायदा नहीं हुआ था। सुनीता का  दिमाग़ क्रोध से भर गया था। सुनीता को बाहर खड़ी रमेश की गाड़ी नज़र बार-बार आ रही थी.. उस गाड़ी को देख-देख कर सुनीता ने रमेश और रंजना को अपनी कल्पनाओं में ही सोच लिया था.. कि ये दोनों मिलकर किस तरह से गाड़ी में घूमते होंगें। यही सोचते हुए, सुनीता अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं पा सकी थी..  और आँखों पर क्रोध की पट्टी बाँधकर नीचे उस गाड़ी के नज़दीक पहुँच गई थी।

सुनीता ने गाड़ी के काँच के अन्दर झाँककर देखा था.. पेपर प्लेट्स, कागज़ के ग्लास और कुछ पुराने अख़बार दिखाई पड़े थे.. जिन्हें देखकर सुनीता ग़ुस्से में पागल हो गई थी.. दिमाग़ में केवल एक ही ख़याल आया था.. रमेश फ़िर से शाम होते ही उसी रंजना के साथ भागेगा। इसी ख़याल को अपने साथ लेकर सुनीता तेज़ी से ऊपर भागी थी.. और अपने साथ एक चाकू .. साधारण सा सब्जी काटने वाला चाकू लेकर नीचे उतरी थी।

सुनीता के हाथ में चाकू था. आँखों में सिवाए बदले के कुछ भी नहीं था.. सुनीता ने वक्त और परमात्मा सबकुछ भूलकर चाकू से गाड़ी के तीन पहिये पंक्चर कर दिये थे।

“ मैने अपनी आँखों से देखा था.. जब यह गाड़ी के पास खड़ी थी, और फ़िर पहिये के पास नीचे बैठ गई थी”।

सुनीता की इस हरकत का कौन था.. चश्मदीद गवाह! सुनीता पर गाड़ी पंक्चर का मुकदमा डाल दिया गया था.. अपनी करनी पर फंस गई थी.. सुनीता! गवाहों की गवाही और परिस्थितियों को मध्यनजर रखते हुए.. क्या फैसला सुनीता के हक में होगा!.. या फ़िर..?? जानने के लिये पढ़ते रहिये खानदान।

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