” अरे! रे! ..रे! क्या फेंक रही हो! गाय के आगे दीदी.. रुको!”।
” कुछ नहीं छोले हैं! पता नहीं.. कब के पड़े थे.. ध्यान ही नही रहा.. पैकेट खोला तो ये काली सुरसी लगी पायीं! क्या करती.. पानी में भिगो रखे थे.. सोचा गाय को ही दे दूँ!”।
” अरे! दीदी.. तुम गाय को रहने दो! मुझे दे दो! बहुत महँगे आते हैं.. ये!”।
और मैने सुरसी लगे छोलों का डिब्बा उसके कहने पर उसे दे दिया था। हमारे पड़ोस में ही खाना बनाने का काम करती है।
दो तीन दिन बाद.. घूमते हुए..
” अरे! सुन..! मेरा वो डिब्बा तो दे देती! वैसे क्या किया तूने उन छोलों का!”।
” अरे! दीदी.. ख़ूब अच्छे से धोकर.. मैने वो उबाले.. और ख़ूब सारे प्याज़ टमाटर में छोंक लगाकर.. हम सबनें भी खाए.. और अपने मित्रों की भी खिलाए.. बहुत ही पसंद आए सबको! आप बेकार ही फेंक रहीं थीं.. दीदी! बहुत महँगी चीजें आतीं हैं.. कल ला दूँगी आपका डिब्बा!”।
और ख़ुश होकर वहाँ से चली गयी थी।
रोटी की क़ीमत का अहसास हुआ.. था मुझे!
यह पहली बार नहीं था.. इसी के लगते एक और क़िस्सा याद आया था..,” बीबी जी! यह जो चावल आपने बर्तन में चिपके हुए.. नाली में फेंके हैं.. न! यह मेरे काके का सवेरे का नाश्ता है!”।
बचपम से घर में काम कर रही कामवाली ने माँ से कहा था.. उस दिन के बाद से हमनें झूठे बर्तनों को भी ठीक से समेट साफ़ करने के लिए रखा था।
भोजन तो कई प्रकार के हैं.. पर रोटी से ज़्यादा बड़ी क़ीमत किसी की भी नहीं है.. भोजन ठुकराते वक्त उस इंसान के चेहरे को आँखों में बसा कर देखना चाहिये.. जिसे किसी कारण से दो वक़्त की रोटी भी जुटाना मुश्किल हो रहा हो।