ये काला सूरज मुझ मौना को जानता है !!
कहानी
समापन किश्त :-
कहता है – ये मुझे जानता नहीं है ! इस ने तो मुझे कभी छुआ तक नहीं . नहीं,नहीं ! नहीं भोगा इस ने मेरे जिस्म को . और न ही खेला ये मेरी भावनाओं से ! उन भावनाओं से – जो सर्वथा अछूती थीं और किसी पुरुष के आने के इंतज़ार में थीं ! और तब ये आया था – एक कामना पुरुष की तरह …और मैंने इस का तन-मन से स्वागत किया था -अपना सब कुछ इसे सौंप कर !!
बइमान ! बड़ा बन गया है , न ? बहुत बड़ा …इतना बड़ा कि अब में इस की परछाईं तक को नहीं छू सकती ! मैं अब इस से मिल भी नहीं सकती !! मैं इस का नाम तक नहीं ले सकती !!! कारण – मैं एक पेशेवर सैक्स वर्कर हूँ . बदनाम हूँ . धंधा करती हूँ और अब ये ठहरा – मिस्टर क्लीन ! हा …हा…हा …! हो…हो…हो !! व्हाट… ए… ट्रेजेडी ?
अब क्या करू …? कैसे बर्दाश्त करूं …अपने इस अपमान को …? क्यों न मैं आग में कूद जाऊं …? या कि मैं लडूं ….बोलूँ ….और सब कुछ बता दूं ….? साफ़-साफ़ कह दूं …कि ये नराधम तो ….एक इन्सान कहलाने लायक भी नहीं ! फिर लोग इसे इतने ऊंचे अलंकारों से क्यों शोभायमान कर रहे हैं ? क्यों …क्यों ….इस की पूजा की जा रही है ….गुणगान किया जा रहा है …?
अरे ….अरे ….ये तो ….ये तो ….मेरे हुश्न को पी-पी कर पला है ! ये तो ….ये तो ….मेरे भीतर की भावनाओं को भोग-भोग कर जिया है !! ये तो ….ये तो …मेरे साथ संभोग कर-कर के मर्द बना है !! और इस ने तो मेरा सर्वश्व लूटा है . जब कि , सच मानिए मित्रो ! मैंने बदले में इस से एक कानी कौड़ी भी नहीं ली ! में …मौना एक भोली चिड़िया की तरह यही सोचती रही कि …ये मेरा कामना -पुरुष है ! ये मुझे इस नरक से उठा लेगा ! ये मुझ एक निरीह नारी का ज़रूर उद्धार करेगा !! और ज़रूर-ज़रूर ये मेरे प्यार की कीमत चुकाएगा …
मैं …मैं …सच में ही इसे एक मनुष्य मान बैठी थी, लोगो ! मैंने इस में कुछ ऐसा-वैसा खोज निकाला था ….जो शायद मेरे लिए एक भ्रम -जाल ही था या कि मेरी अधूरी आकांक्षाएं थीं ! और मैं मान बैठी थी कि ये मेरा प्राणाधार है …..मेरा मन-मीत है ….मेरा हितैषी है …और मेरा परम परमात्मा है !!
लेकिन ये देखो ! कहता है , निकम्मा कि ये तो मुझे जानता तक नहीं !
लेकिन उस दिन यह मौना को पहचानता था ….जब मौना के साथ …मेरे साथ …मुझे ले कर …भोगशाला के फर्श पर …पडा था …और मुझे चटाई की तरह बिछाए …मेरे अंग -प्रत्यंगों को चूम रहा था …चाट रहा था …सराह रहा था …और आहें भर-भर कर कह रहा था – यू ….आर …ग्रेट ….माय …मौना !! ओह …मौना ….माय डार्लिंग ….
इस ने मुझे मना कर …बहला कर ….समझा कर …निर्वसन कर लिया था ! यह स्वयं भी मेरे सामने एक नंगा पहाड़-सा आ खड़ा हुआ था ! इस के बलिष्ट ,पुष्ट और चुस्त-दुरुस्त शरीर को देख मैं ….मुग्ध हो गई थी !
तब इस ने एक अलग ही रास-लीला आरंभ की थी !
न जाने ये क्या-क्या नहीं जानता था ! इसे सब आता था . ये कोरा न था . ये अनाडी भी न था . ये पूर्ण दक्ष था . रति-क्रीडा में ये प्रवीण था . मुझे लगा था कि मैं ही इस के मुकाबले अनाडी थी . लेकिन तब हम दोनों ने स्वेच्छा से ही आदान-प्रदान किया था . न मैंने इसे रोका था ….न इस ने मुझे टोका था ! और सच में ही जो कुछ हम दोनों ने किया था …वो तो बेजोड़ ही था !!
इस ने मुझे उठा-उठा कर …लेजा-लेजा कर …अलग-अलग भंगिमाओं में सजा कर कुछ इस तरह से भोगा-भुगता था ….जैसे ये कोई खोज कर रहा था …! सच में ही इस ने मुझे पूर्ण तरह से उन्मादित कर दिया था ! मैं वास्तव में ही आपा भूल बैठी थी . मुझे कुछ भी याद न रहा था – सिवा इस के कि ….ये था …मैं थी ….हम थे ….और हम जो भी कुछ कर रहवे थे – वह न तो निषेध था …और न ही गलत था !
खूब जिया था हमने उस दिन को !!
लेकिन आज ….? आज मौना -मौना नहीं ….एक वाहयात औरत है ….जो …इल्जाम लगा रही है …झूठ बोल रही है …बदनाम कर रही है एक ऐसे आदमी को ….जो ….
क्या करू …..?
मन तो एक ही जिद पर अड़ा है कि मैं इसे तार-तार कर खोलदूं …सब के सामने नंगा कर दूं …! फिर एक -एक घटना का बयान कर बताऊं कि इस बइमान ने मुझे न तो सुनाम किया …और न ही मेरे दिए -किए का मान रखा ! में तो इसे देवता मानती रही थी …में तो इस के इंतज़ार में बैठी थी ! मैं तो सोच रही थी कि ये ज़रूर लौटेगा …कहीं डोल-फिर कर आएगा मेरे पास . मुझे मनाएगा ….मुझ से मांगेगा …! मैं तो पलक-पांवड़े बिछाए इस के लिए नए सपने संजोए …बैठी थी . सोच रही थी कि अब की बार ….इसे क्या-क्या दूँगी …कैसे दूँगी …और कहाँ जा-जा कर रहूंगी …इस के साथ …और …किस तरह से फिर एक रंग-विरंगा संसार रच लूंगी …अपने आस-पास !
लेकिन अब क्या करू …? मेरा अपना तो कोई है ही नहीं ! लेकिन इस का तो ….सारा संसार है !!
जो भी हो , में भी अब झुकूंगी नहीं ….!
इसे अब मानना ही होगा कि ये – काला सूरज मुझ मौना को जानता है !!
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श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!