झालमुडी…! झाल… झाल… झालमुडी….!!
भेलपूरी…! भेलपूरी..! झालमुडी..!!
झालमुडी और भेलपूरी बेचने वालों की आवाज़ें हुआ करतीं थीं.. जगह थी.. कलकत्ता की हुगली नदी के किनारे बाबू घाट।
हर इतवार हम यहीँ परिवार सहित पिकनिक मनाने आया करते थे.. कोई भी इतवार ऐसा नहीं होता था.. जब हमनें बाबू घाट पर बैठ अपनों संग पिकनिक नहीं मनाई हो!
बच्चे ही तो थे.. बस! इतनी धुंदली सी याद है.. कि बाबू घाट पर घर से चादर और खाना वगरैह ले जाकर जमकर एन्जॉय किया करते थे.. बाबू घाट और हुगली नदी के बीच सड़क थी.. और उस पार बड़े-बड़े पानी के जहाज और मोटर बोअट्स खड़े रहा करते थे.. कभी कभार मोटर बोट में भी घूम लिए होंगें.. पर वो बाबू घाट पर झालमुडी और भेलपूरी बेचने वाले भईया और हमारा खेल कूद करना ही याद रह गया है।
हाँ! पर झालमुडी और बाबू घाट से एक ही क़िस्सा ऐसा है.. जो आज भी सारा परिवार याद कर ज़ोरों से हँस देता है।
घर से ले जाया हुआ.. खाना तो खाते ही थे.. पर भेलपूरी नहीं! झालमुडी का खाना तो पक्का ही था..
अब हुआ यूँ…
” चल! बना दे..! यार..! एक प्लेट झालमुडी! तू भी क्या याद रखेगा!”।
” कितनी झाल डालूँ साब!”।
” जितना तेरा मन करे!”।
” नहीं ! साब.. कितनी झाल डालूँ!”।
” अब तू सोच मत..! डाल दे दिल खोल के!”।
बार-बार पूछने पर भी पिताजी ने झालमुडी वाले को दिल खोलकर झाल डालने का आर्डर दे डाला था.. और भइया.. पिताजी के कहे मुताबिक झालमुडी का दोना तैयार कर.. हाथ में थमा.. अपने पैसे लेकर.. वहाँ से निकल गया था।
हाथ में ख़ुश होकर पिकनिक के फूल मूड में पिताजी का चम्मच भर कर झालमुडी मुहँ में डालना हुआ था कि..
” अरे! मरवा दिया साले ने..! मिर्ची भर गया. !”।
ढ़ेर सारी उस झालमुडी में लाल-मिर्च खा.. पिताजी पिकनिक भूल.. ग़ुस्से में लाल-पीले हो गए थे..
अब अचानक यूँ ग़ुस्से में तमतमाता देख.. पड़ोस में पिकनिक मना रहे बंगाली बाबू हमसे पूछ ही बैठे थे..
” व्हाट happened sir! क्या हुआ.. अभी आप लोग ख़ुश थे.. कोई problem हुआ क्या..?”।
” नहीं! नहीं! .. वो actually!”।
और माँ ने झालमुडी वाले भइया और पिताजी का झालमुडी बनवाना बताया था..
और पूरी बात सुनकर.. बंगाली बाबू ज़ोर से हँसे थे.. और हँसते-हँसते ही बोले..
” ओह! अच्छा! अच्छा!.. कुछ नहीं! सर्! वो बंगला में.. झाल माने मिर्ची होता है.. और आप उसकी बात समझ नहीं पाए.. इसलिए.. ‘।
और फ़िर एकबार हँस दिए थे।
यह जानकर कि.. बंगाली में झाल मिर्ची को बोलते हैं..
पिताजी का गुस्सा भी ठहाके में बदल गया था।