” भइया! आप न गोभी वगरैह बना दिया करो! टिफ़िन के लिए!”

” जी! साब!”।

“चलो! अच्छा है.. अब टिफ़िन में रोज़ सब्ज़ी मिला करेगी! नहीं तो वही ब्रेड जैम ले जाने पड़ते थे”।

बात दरअसल उन दिनों है.. जब हमारे पिताजी फ़ौज की सर्विस में थे.. और वहाँ किचन allowed न होकर mess में ही हमारे भोजन की व्यवस्था हुआ करती थी.. तो ज़ाहिर सी बात है.. कि हमारे स्कूल का लंच भी वहीं पैक होता था।

पर शुरू में केवल हमें ब्रेड जैम ही देते थे.. रोज़ mess वाले कुक भइया! हम भी परेशान से हो गए थे.. रोज़ उस ब्रेड जैम से!

तंग आकर पिताजी से कह.. सब्ज़ी पराठें का आर्डर दिलवा दिया था..

अब पूछा जाने पर कि कौन सी सब्ज़ी.. हमनें भी उदहारण के तौर पर कह डाला था,” जैसे गोभी की!”।

बस! फ़िर क्या था.. अब तो रोज़ ही हमें हुक्म के मुताबिक हमारे टिफ़िन में पत्ता गोभी की सब्ज़ी और पराँठे मिलने लगे थे। नाक में दम सा ही हो गया था.. उस पत्ता गोभी से!

” अरे! भइया! हमारा मतलब ये थोड़ी था.. कि आप हमें रोज़ ही पत्ता गोभी दो! हमनें तो बस! उदहारण दिया था..जैसे पत्ता गोभी! और भी तो सब्ज़ी हैं.. जैसे भिंडी वो भी दे दिया करो!”।

बस! अब तो भिंडी का वो सिलसिला शुरू हुआ.. कि ख़त्म ही होने को नहीं आया था..

क्या करते हमनें ही हार मानकर टिफ़िन ही ले जाना छोड़ दिया था.. और स्कूल कैंटीन का सहारा लिया था।

“जी साब!” कह वो हुक्म बजाना.. और वो गोभी और भिंडी लागतार हमारे टिफ़िन में देना.. भी एक प्यारी सी याद बन कर रह गया है।

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