” बारह निकाल दे! कढ़ाई में से!”।

कार में पीछे की सीट पर आराम से सो रही मैं.. अचानक से नींद से जगी थी। पिताजी की आवाज़ ने मेरी नींद खोल दी थी… देखा! हमारी कार हलवाई की दुकान के सामने खड़ी थी.. और पिताजी हलवाई को बारह समोसों का आर्डर दे रहे थे.. सोमोसों की गर्म-गर्म खुशबू ने मुझे पूरी तरह से जगा कर बैठा दिया था.. कलकत्ता से जम्मू परिवार के साथ by कार आ रहे थे।

” जलेबी भी तुलवा लूँ क्या बच्चों..!”

पिताजी ने पीछे कार की सीट पर बैठे हम बहन-भाईओं से पूछा था..

” हाँजी! हाँजी! ..जी पिताजी! जलेबी भी..!”।

सवाल ख़त्म होने का इंतज़ार न करते हुए.. मैने फट से उत्तर दे डाला था.. खाने-पीने में महारत जो हासिल कर रखी थी.. छुटपन से!

” अरी! हाँ! हाँ! ..”।

” अरे! यार तू एक किलो जलेबी भी तोल ही दे!”।

पिताजी जानते थे.. जलेबी वाले सवाल का और कोई उत्तर दे या न दे.. पर मुझसे उत्तर ज़रूर पा जायेंगे।

” हो गया साब..!”।

गाड़ी के काँच में से हलवाई ने पिताजी को वो समोसों और जलेबी का पैकेट थमा दिया था.. चलने ही लगे थे.. कि..

” बस! बारह ही!”

” और कितने खाने हैं.. मोटी लड़की.!”

पिताजी ने गाड़ी एकबार वहीँ रोक.. मुस्कुराते हुए.. पूछा था..

” बस! दो और!”।

” चल यार दो समोसे हमारी बिटिया के नाम के और दे ही दे!”।

और गाड़ी तेज़ी से आगे निकल गई थी।

वाकई! जम्मू के उस हलवाई के समोसों का स्वाद मूली की चटनी के साथ लाजवाब हुआ करता था.. और कमाल की जलेबी हुआ करतीं थीं.. 

बचपन से बड़े होने तक.. घर में हर छुट्टी वाले दिन शाम के समय घूमते-घूमते माँ और पिताजी समोसे और जलेबी संग लेकर ही आया करते थे.. 

मौसम बहुत ही रंगीन हो रहा है.. लगातार पानी बरस रहा है.. लगातार बरसती हुई.. इन बूंदों और मौसम की इस प्यारी सी ठंडक में.. पिताजी के समोसों और जलेबी का वो अनोखा लाड़ याद आ गया.. और उनके उस लाड़ को याद करते हुए.. पंक्तियाँ लिख डालीं!

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