गर तू ही इशक होने से मुकर गया होता।
मेरे अन्दर का वो जख्म भर गया होता।
चहकती फिरती मैं अल्हङ सा यौवन लेकर
रूप मेरा कुछ और निखर गया होता।
गुब्बार कोई न होता फिर मेरे भी सीने में।
मेरे अंदर का वो शख्स न मर गया होता।
आवारा फिरती न यादें तेरी ज़ेहन में मेरे
तू गर मुझ से किनारा सा कर गया होता।
बात बेबात पे न निकल आते यूँ आँसू मेरे
रंग खुशियों का चार सू बिखर गया होता।
सुरिंदर कौर