Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

Hindoo Raastra !

hindoo raastra

केसर ही मेरी गुरु थी !!

मुझे लौट आना चाहिए था ! उस अजेय चट्टान की चुनौती मुझे नहीं ओटनी चाहिए थी !

लेकिन किसी प्रेरणा वश मैं राना से कूदा था …चार कदम चल कर उस पर्वत श्रेणी के शीर्ष पर खड़ा …नीचे के द्रश्य का जायजा ले रहा था . आँखें पसार कर मैं उन रेतीले विस्तारों को निरख-परख रहा था . वहां बसावट थी. लोग भी थे . भेड़ें थीं …और …और हाँ , आसमान पर जा टंगा एक जलाशय भी था ! वहां पानी ज़रूर था ….और मुझे पानी की ही दरकार थी ! मेरा गला सूखा था . होठों पर पपड़ी ज़मी थी .

पलट कर मैंने चुपचाप खड़े राना को निहारा था !

“नहीं, कुंवर सा !” राना ने मूक व्यंजना में कहा था . “मैं न उतर पाऊंगा ….नीचे ! मैं तो रेट का ही राजा हूँ …!! ये खड़ी चट्टान …?”

क्या करू – कुछ भी समझ में न आ रहा था .

मैंने पलट कर फिर से उन विस्तारों को देखा था . लगा था – मुझे कोई बुला रहा था – पुकार रहा था ! वह कोई विचित्र लोक था ….अनजान-सा कुछ था ….जो मुझे जानने के लिए बुला रहा था ! प्यास बुझाने के लिए कह रहा था ….और कह रहा था – आओ,न कुंवर सा ….? आप का इंतज़ार तो हमें ….

“क्यों …?” मैंने पूछा था .

“आओ …तो बताएं ….!!” मैंने आवाज़ सुनी थी . “डर गए …पहाड़ देख कर ….?” उल्हाना आया था . “आप ने तो न जाने कितने-कितने उतार-चढ़ाव देखने हैं …? आरंभ ही तो है , आप का ….!! आओ, उतर आओ ….”

राना को इंतज़ार में खड़ा कर मैं उस चट्टान की खड़ी उतराई को उतरने लगा था . जान-जोखिम का काम था . पर था …..!! मैंने ….जमा-जमा कर पैर धरे …..हाथों को हथियारों की तरह स्तेमाल किया ……पेट के बल भी रीगा ….तो कभी लुढ़क कर नीचे आया . पूरा बदन लहू-लुहान हो गया था . एक-एक साँस ….टूट-टूट कर जुडी थी . प्यास से बेदम हुआ मैं ….बड़ी ही कठिनाई से नीचे उतर आया था .

रेगिस्थान के बीचों-बीच बसे उस इंद्र-लोक को मैंने फिर से एक बार ….निगाहें पसार कर देखा था . पेड़ों के झुरमुट में …कच्चे घरों का सिलसिला था . तालाब था ….भेड़ों का रेबड़ था . …और कुछ रेबड़ की रखवाली करते ….कुत्ते थे …भयंकर कटखने कुत्ते – जिन्हें देख मेरी रूह काँप उठी थी . मैंने पीछे मुड कर देखा था . राना मुझे दिखाई न दिया था . न कोई पीछे भागने की सूरत थी . मुझे आगे ही जाना था …..! लडखडाते कदमों से ….हारे-थके बदन को रेत पर घसीटता मैं ‘मरता-क्या न करता ‘ की मुद्रा में आगे बढ़ा था . मैं खबरदार था .

“कौन …..?” किसी ने मुझ से पूछा था. शायद मुझे चट्टान से नीचे उतरते देख लिया गया था ?

“प-…पा …नी ….!!” मैंने उस गडरिया की आँखों में देख मांग की थी .

“लंका ……! आ…ओ ….!!” उस ने इशारा किया था और मुझे ले चला था .

इशारे से ही उस ने मुझे एक मोर्चा नुमा ठिकाने की और भेजा था . उस ने फिर से मुझे इशारे से बताया था – ‘लंका’ ! मैंने हिम्मत कर उस मोर्चे नुमा घर में झाँका था . शायद कोई था …..पर पुरुष नहीं था ! शायद …लड़की जैसी एक परछाई थी – पर मैं पहचान न पाया था . हिम्मत कर मैंने …उस गडरिया का दिया मंत्र ही बोल दिया था .

“लं-का ….!!” मेरे कंठ-स्वर गडबडाए हुए थे . मैं बहुत प्यासा था !

“सडाक- सडाक ….!!” उस संभावित लड़की ने मुझ पर आक्रमण कर दिया था . मैंने महसूसा था कि ….उन सोटा के हुए प्रहारों ने मेरी दोनों टाँगे तोड़ डालीं थीं . मैं बेदम होने ही जा रहा था – मैं खड़ा न रह पा रहा था ….और फिर …..मेरी आँखें बंद हो गई ….मेरी चेतना भी जाती रही .

मैंने जब आँखें खोलीं थीं ….तब सूरज अपने घर जा रहा था !

एक सुनहरी प्रकाश ….उस पूरे रेतीले धरातल को मायावी रंग-रूपों से भर ….मुझे …भरमाने लगा था ! मैंने हिम्मत बटोर कर …उस प्रहार करने वाली …संभावित लड़की को तलाशा था . वह कहीं नहीं थी . मैंने महसूसा था कि ….अब मैं प्यासा नहीं था ! मेरी टाँगों  पर भी किसी ने उपचार के लिए हरी-हरी पत्तियां बंध दीं थीं . मुझे लगा – ये कोई मेरा अपना ही था ….शायद बहुत अपना , जिस ने ….मुझे जीवन-दान दिया था ….और …..

“लंका क्यों कहा ….?” अचानक मेरे सामने आ कर प्रश्न ठहर गया था . वही संभावित लड़की थी – शायद ! सपाट चेहरा था – उस का . बाल अस्त-व्यस्त थे . शारीर पुष्ट था . आँखें चंचल थी . वह मुझे अपलक देखे जा रही थी . मुझे अब प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक लगा था .

“उ-स-ने ….वो जो …मुझे लाया था ….बताया था …..’लं ….’ ”

“चुप ….!!” मुझे उस ने झिड़क दिया था . “के-स-र …., कहो ….!!” वह तनिक मुस्कराई थी . “वो …मुल्ला है ….अफगान है ….जलता है ….!!” वह रुकी थी . “तुम …..?”

“हे-मूं …., कहो ….!!” मैं शरारत से कह रहा था . “चाहो तो …..”

“चुप्प ….!!” फिर से उसने मुझे वर्ज दिया था . “आराम करो ….!!!” उस का आदेश था . .

लेकिन मेरे जैसों की तकदीर मैं आराम बदा कहाँ होता है ….?

मैं चुप था . पर चुप था भी नहीं ! मैं केसर को अपलक और अपांग घूरे जा रहा था . केसर का वो मर्दाना हुलिया मुझे बहुत जम रहा था . उस का स्वस्थ और पुष्ट बदन एक  मर्दानगी की बू से भरा था . उस की आँखों से छलकता आत्मविश्वास भी बेजोड़ था . जो सोटे से प्रहार उस ने किया था ….

“बोलोगे नहीं …..?” केसर भी मुझे एक टक देखती रही थी . वह भी मुझे नांप-तौल चुकी थी !

“नहीं …!” मैंने विंहस कर कहा . “टाँगे ….तोड़ दीं ….! कैसे जाऊँगा ….?”

“जाने को कौन कह रहा है ….?”

“रुकने का आग्रह किस ने किया है ….?” मैंने सीधा उसे आँखों में देखा था .

हे, परमात्मा ! ये कैसा स्वीकार है ….इस केसर की आँखों में ….? ये कैसा है , मेरा मन -जो केसर के ही आस-पास भंवरे-सा मंडरा रहा है …प्रेम-गीत गा रहा है ….मनुहारें सुना रहा है …..! केसर के धूल-धूसरित बाल …..उलझा-सुलझा हुलिया —-और अल्लम -खल्लम परिधान न जाने मुझे इतने क्यों भा गए थे ….?

“रुको …न , रात को …..!” केसर का आग्रह था .

“जा भी कैसे सकता हूँ …..?” मेरा प्रश्न था . “टांगें …..?” मैंने फिर से अपना रोना रोया था .

“ठीक होजाएंगीं …? ” हंसी थी , केसर ! “सिकाई होगी तो ….खून बहने लगेगा …!” उस का कहना था . “लंका -नाम सुन कर मैं ….पागल हो जाती हूँ .” शिकायत कर रही थी , वह . “ये इतना गधा है , मुल्ला …कि ….”

“और मैं उस से भी बड़ा गधा ….निकला ……जो …..”

“चुप्प ….!” केसर ने मुझे फिर से डाट दिया .

अब तक हमारा प्रगाढ़ परिचय हो चुका था .

चांदनी रात हमारे स्वागत में चन्द्र-कलाएं बखेर आ खड़ी हुई थीं . केसर ने मुझे खाना खिलाया . मेरे पैरों की सिकाई की . मुझे बिस्तर में बड़े चाव-से सहेजा और ….सोने को कहा . लेकिन मैं ….था कि …आज सोना ही न चाहता था ! मैं तो चाहता था कि …हर पल ….एक-एक क्षण …मैं ….केसर के साथ ही जीउँ …!! मैं ……उस से बतियाता रहूँ ….उसे ही निहारता रहूँ ….और ……उस की हंसी को अपने जहन में कैद करता रहूँ …!

“मुझे तो पहरे पर जाना है ….!” केसर बोली थी . “भेडियों के आने का वक्त हो रहा है .” उस ने बताया था . “गडरिए गंवार हैं ….! मैं न गई तो …सो जाएंगे .”

“मैं भी चलता हूँ ….?” मैंने मांग की थी .

“अब तक तो मरे पड़े थे …?” केसर का उल्हाना था. ” अब जान कैसे लौटी ….?”

“केसर का करिश्मा है …..!” मैंने मसका मारा था .

वह हंसी थी . मैं भी हंसा था . हम दोनों फिर साथ-साथ हंस रहे थे ….और केसर मुझे कंधे का सहारा दीए  ….पहरे पर ले जा रही थी .

चांदनी रात में …सब साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था ! विशाल रेबड़ के चौगिर्द पहरा था . गडरिए थे ….कुत्ते थे ….और रेत का एक अहाता था . लेकिन किसी भेड़िए को रोकने के लिए ये सब पर्याप्त न था . भेड़िए बहुत ज़ालिम थे . चकमा देने में उस्ताद थे ….और भेड़ चुरा कर ले जाने में माहिर …!

“तुम यहीं झाडी में रुको !” केसर का आदेश था . “मैं ….पहरा देख कर ….अभी लौटी …!” उस ने कहा था . “मुझे आगाज़ है ….कि …कहीं भेड़िया है ….!” उस ने कहा था .

मैं चौकन्ना हो गया था . मेरे लिए ये सब निपट नया था ! ऐसा तो न था कि मैंने कभी भेड़िए का नाम न सुना था …पर मुलाक़ात कभी न हुई थी ! लौट कर केसर भी मुझे भेडियों की चालाकियों के किस्से सुना ही रही थी …कि …लो ! हो गया , हमला !! भेड़िए ने भेड का कान पकड़ा था …और …उसे ले चला था ! भरपूर दौड़ता हुआ वह जा रहा था !

कुत्तों ने हल्ला बोला ….भेड़िए के पीछे दौड़े …! गडरियों ने भी शोर डाला ….’हो,हो ‘ कर आगे पीछे दौड़े ….! और …और ….हाँ …! केसर मेरी बगल से कूदी . सोटा संभाला और ….भागते भेड़िए के सामने आ ….वार किया ! भेड़िया – चित्त ….!! एक वार में समाप्त …खल्लास …!!

कैसा विचित्र द्रश्य था ….? मैं आल्हाद से भर आया था …..मैं केसर का लोहा मान गया था ….! मैंने केसर को छू लिया था ….मैंने ….केसर को ….मैंने ……

सच मानिए कि मेरे जीवन का ये ….प्रथम दुश्मन को परास्त करने का सबक था – जो मैंने केसर से सीखा था ! केसर ही मेरी गुरु थी !!

पर थी कहाँ …..? मैं अब उसे ही पुकारने लगा था ……

…………………..क्रमशः –

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

Exit mobile version