Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

Hindoo Raastra

जान बची तो लाखों पाए !!

उपन्यास अंश :-

टम-टम को लिए घोड़े भागे जा रहे थे !

पर मैं था कि आज उड़ना चाहता था . मैं चाहता था कि आसमान में ऊँचा जा उठूं …..और फिर अपननी पूरी सामर्थ लगा कर उडू और सरपट उडता हुआ ….शीघ्रातिशीघ्र दिल्ली पहुँच जाऊं ….और देखूं कि …आखिर ये दिल्ली – जिसका रोज़-रोज़ डंका पिटता है , है क्या चीज़ …? अभी तक तो हम कीकर के घने जंगलों से ही गुज़र रहे थे ! आस-पास कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था . हाँ! इतना एहसास ज़रूर हो रहा था कि ….जंगल पहाड़ी ज़मीन पर उगा है ….और हम एक ऊबड़ -खाबड़ रास्ते से गुज़र रहे हैं ! तंग आ कर मैंने अपनी भूखी-प्यासी निगाहें आसमान पर तान लीं थीं !

ओ-हो …! ….हो,हो …!! वो देखो !! आसमान को छूती हुई ….एक गगन चुंबी ….कोई मीनार जैसी मुझे दिखाई दी थी ! आसमान पर जैसे ऊंची टंगी थी …और गहरे जंगलों का झुरमुट भी उसे उजागर होने से रोक न पा रहा था ! मेरी भी जिज्ञासा के पंख उग आए थे ! अब मैं जानना चाहता था कि वो आसमान छूती मीनार …..

“क़ुतुब मीनार है …ये जो तुम्हें दिखाई दे रही है !” शेख शामी ने मेरी जिज्ञासा को ताड़ कर कहा था . “देखना ….जा कर देखना …!” हँसे थे – शेख शामी. “और भी बहुत कुछ है ….दिल्ली में देखने लायक !!” उन्हों ने बताया था .

अचानक ही मुझे पेड़ों के झुरमुटों के पार हँसते -खेलते खंडहर नज़र आने लगे थे . कुछ कस्वे नुमा बस्तियां भी नज़र आने लगीं थीं . एक रौनक थी जो दिल्ली के आस-पास को संभाले थी . मैं अब खबरदार था . मैं बिन देखे कुछ भी छोड़ना न चाहता था !

लो , जी ! दिल्ली शहर जो शुरू हुआ …तो मैं तो होश ही भूल गया !

पहली ही बार मैं एक शहर देख रहा था . मुझे तो इस तरह के शहर का अनुमान ही न था . एक चहल-पहल ….आवा-जाही  ..और भीड़-उछीड के पार हम चलते ही चले जा रहे थे …और दिल्ली शहर जैसे हमारा स्वागत कर रहा था ! मकान थे …कई-कई मंजिले मकान . दुकानें थीं ….सजी-बजी और भीड़ से भरी . और …और …हाँ, हवेलियाँ भी थीं . न जाने कैसे-कैसे लोग रहते होंगे – इन घर-मकानों में …, मैं सोचने लगा था !

“लो, आगया …अपना दौलत खाना !” शेख शामी ने कहा था . “बाडा शेख सलामी है – इस बस्ती का नाम !”उन्होंने मुझे बताया था . “ये हवेली …..अब्बा हुज़ूर को …इनाम में मिली थी . ” उन्होंने मुझे सूचित किया था .

नौकर-चाकरों की एक भीड़ जैसी उमड़ आई थी . शेख शामी का जोरदार स्वागत हुआ था .

मैं खोया-खोया खड़ा था . समझ नहीं आ रहा था कि पहला कदम किस दिशा में लूं ? मैं जानता किसे था …? फिर भी मैं अपने होशो-हबास में मौन खड़ा था ….एक प्रतीक्षा में कि कुछ-न-कुछ अवश्य घटेगा !

“हेमूं ….!” शेख शामी ने ही मुझे पुकारा था . “आ-ओ ! परिवार के साथ तुम्हारा तारुफ़ कराऊँ !” वो मुस्कराए थे . “भाई, बड़ा परिवार है , हमारा ! मेरी तीन बेगमें हैं .-जूही, जफा और अशरफ ! हमारे सत्रह बच्चे हैं . मिलो …सब से ….! और भाई , ये हमारे महमान हैं – हेमूं ! हमारे व्यापार में शामिल होने आये हैं ! चौधरी साहब – जो कि हमारे जिगरी दोस्त हैं , उन्हीं के सहाबजादे हैं !”

अब आ कर मुझे साँस लौटी थी !

“भाई ! अपुन दोस्त हुए ….!!” एक हम-उम्र लडके ने दौड़ कर मुझे बांहों में भर लिया था . “मैं – कादिर !” उस ने अपना नाम बताया था . “मुझे तुम अच्छे लगे ….” उस ने मेरी आँखों में झाँका था .

“मुझे मंज़ूर है , कादिर !” मैंने सहज स्वभाव में कहा था . मैं समझ रहा था कि दिल्ली के दरवाज़े खोलने के लिए मुझे कादिर जैसी ही कुंजी की दरकार थी !

घर में आव-भगत का सिलसिला शुरू हुआ था !

“तुम हिन्दू हो , न …?” अशरफ पूछ रही थी . बहुत ही सुंदर थी – अशरफ ! “मैंने तुम्हारे लिए ….ख़ास तौर पर बनाया है – ये ….”

“क्यों ….?” न जाने क्यों मैंने अशरफ से पूछ ही लिया था .

“म …म …मैं भी ….हिन्दू हूँ ….न …!” उस ने चुपके से मुझे बताया था . “ये …मुझे उठा लाया था …!” वह तनिक उदास थी . “क्या करती , बेटे ….?” उस की आँखों में आँसू थे . “लेकिन तुम चिंता मत करना ….! मैं हूँ …न …!!” उस ने बात समाप्त कर दी थी .

“ये बारादरी है, बेटे !” शेख शामी अब मुझे हवेली के बाहर ले आये थे . “तुम्हारे रहने के लिए -माकूल है !” उन का कहना था . “पीछे लम्बा-चौड़ा अहाता है- माल के लिए . अब चाहे जित्ता माल आए …. चिंता नहीं ! और हाँ, हम माल तुम से खरीदेंगे . तुम्हारा मुनाफा …तुम्हें देंगे . व्यापार में मैं एतिहात बरतता हूँ !” उन का कहना था . “और वैसे भी तुम्हारा खाना पकाने के लिए ….पंडताइन आया करेगी . मर्जी का खाओ-पकाओ !” वो हँसे थे . “पिछले दिनों से व्यापार ठप्प-सा हो गया है . जब से ‘बोधन’ को जला कर मारा गया है ….हिदूओं ने चुप्पी-सी साध ली है ! शेख शामी ने मुझे सीधा आँखों में घूरा था . “लेकिन …तुम तो हिन्दू हो ….माल ले सकते हो …ख़रीद सकते हो …!” वह अपनी ईजाद की तरकीब पर हँसे थे . “इंशा -अल्ला ! व्वारे-न्यारे होने में देर क्या लगाती है ….?”

अब मैं समझ गया था ! मुझे दिल्ली लाने और …व्यापार करने का मुद्दा मेरी समझ में आ गया था . मैं प्रसन्न था . मेरा मुद्दा तो शेख शामी के मुद्दे से बिलकुल ही भिन्न था ! मुझे उस के मुद्दे का पता चल गया था ….लेकिन मेरा मुद्दा तो मेरे पास ही था !

शेख शामी के चले जाने के बाद मैं अब अकेला …अपनी उस प्राप्त बारादरी से बतियाने लगा था !

“मैं एक …उजड़ा …भारत हूँ , हेमूं !” बारादरी बताने लगी थी . “मेरी काया को देख लो ! अनगिनत घाव खाए हैं , मैंने ! लूट-पाट …मार-पीट …और खून-खराबा सब देखा है , मैंने ! कभी एक भरा-पूरा संसार बस गया था – यहाँ ! लेकिन …इन लुटेरों ने …..”

“रोने की क्या ज़रुरत है ….?” मैंने न जाने क्यों करारी आवाज़ में कहा था . “ये लोग …न जाने कहाँ से …वहां से आ-आ कर हम लोगों को लूट लेते हैं ….और हम …..?” अब मुझे क्रोध चढ़ने लगा था .

“तुम …बस जाओगे ….तो मैं बस जाउंगी ! तुम्हारे बच्चे खिलाऊँगी …..तुम्हारे …..”

ओ,हो !! अब मैं उस बारादरी को भूल …..केसर को याद कर बैठा था !! केसर और मेरे बच्चे ….मुझे किलकारियां मार-मार कर ….बारादरी में दौड़ते-भागते …दिखाई देने लगे थे . नहीं,नहीं ! सत्रह बच्चे नहीं थे . वही – हम जितने ही बहिन-भाई थे ! और केसर ने इस बारादरी को ….एक राज- महल बना दिया था ! और अब वह मेरी महारानी थी !!

“भाई !” कादिर ने मुझे पुकारा था . .मेरा मोग भंग कर दिया था – उस ने ! “भाई! मेरे साथ आऔ गे ….?” वह पूछ रहा था .

“क्यों नहीं ….!” मैंने कादिर का आग्रह सहज में स्वीकार लिया था . “पर जाना कहाँ होगा , कादिर ….?” मैंने पूछा था .

“अखाड़े पर ….!” कादिर ने बताया था . “बोऔत ….मज़ा आएगा !!” वह बता रहा था . “कुश्ती खेलते हैं , वहां !” उस ने सूचना दी थी . “शौक है …..?” उस ने पूछा था .

मैं चुप ही बना रहा था . लेकिन कादिर के आग्रह को मैं ठुकराना भी न चाहता था . अत: हम दोनों अखाड़े की और निकल गए थे .

एक ऊंचे पहाड़ी नुमा स्थान पर अखाड़ा था . अच्छी रौनक थी ….अखाड़े पर ! पेड़-पौधों के बीच में बना अखाड़ा मुझे देख कर हंस पड़ा था ! पर मैं चुप ही बना रहा था . कादिर ही था – जो बोले चला जा रहा था . वह मुझे अपने दोस्त और परिचितों से मिला रहा था . सब अखाड़े के आस-पास जामा होते जा रहे थे . फिर कुश्तियाँ होने लगीं थीं . एक ‘उस्ताद’ से संबोधित होने वाले व्यक्ति ने कुश्तियों का कार्यभार संभाल लिया था !

“तमोली और रमोली की कुश्ती …..” उस्ताद ने पुकारा था . “चलो! दिखाओ अपने-अपने जौहर !” उन का आदेश था .

जम कर लडे थे – तमोली और रमोली ! क्या दाव-पेंच थे ….क्या धरा-पटक थी ….और कैसा-कैसा हुनर था …! दर्शक तो दंग रह गए थे …!

“अरे, कादिर ! तेरा महमान …लडेगा – कुश्ती ….?” उस्ताद ने ही पूछा था . “शौक हो तो ….आए अखाड़े में ….? झम्मन मियां के साथ …..”

“भाई ! लड़ ले ….” कादिर मुझे पूछ रहा था . “इज्जत का सवाल है, भाई !” उस ने आग्रह किया था . “चल ,चल ….! पछाड़ दे ….स्याले …झम्मन …मियां को ….!!”

और मैं अब ….अखाड़े के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ था !

झम्मन मियां का डील-डौल खूब फैला -फूटा हुआ था ! आदमी घुटा-पिटा लग रहा था , मुझे .! पर मैंने उसे चित-पट …करने में देर न की थी ! ये मेरी आदत थी कि मैं सामने खड़े आदमी को टिकने न देता था !

“भाई , खूब !” कह-कह कर लोगों ने तालियाँ बजाइं थीं . “रिझान के साथ हो जाए ….अब की बार ….?” एक और मांग आई थी . और जब रिझान आया था ….तो मैंने उसे भी समेट दिया था !

पूरे दर्शकों की आँखों में अब मैं ही मैं था …..!!

“हिन्दू है ….क्या …..?” फौरन ही प्रश्न उठ खड़ा हुआ था !!

मैं माहौल का मन ताड़ गया था ! मैं कांपने लगा था !! मैं समझ गया था कि ‘हिन्दू’ होने की दशा में ये मुसलमान मुझे यहीं हालाक कर देंगे !!!

“अपुन का भाई है , ब्बे …..!!” कादिर ने जोरों से कहा था .  “चल, भाई !” उस ने मुझे सहेजा था …..और घर ले आया था !

ये दिल्ली से मेरी पहली मुलाक़ात थी , दोस्तों !

जान बची तो लाखों पाए !!

मैंने ऊपर आसमान की और देखा था !!!

………………………

क्रमस:=

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

Exit mobile version