Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

हार जीत

लो जी! हो गया ऐलान इलैक्शन का! सुनाई दे रहा है न – हारेगा भाई हारेगा, हुक्के वाला हारेगा। जीतेगा भाई जीतेगा नागिन वाला जीतेगा! नागिन हमारी पार्टी का चुनाव चिन्ह है जिसे आपने याद रखना है।

और हम भी ऐलाने जंग आपके सामने करते हैं – जो मांगोगे सो मिलेगा। हम आपके मजूर और आप हमारे हुजूर।

“लेकिन नेता जी! इतना सब देने के लिए आप लाएंगे कहां से?” प्रेस ने पूछा है।

प्रेस को उसके प्रश्न का उत्तर देना जरूरी है – यह मैं तो जानता हूँ न!

तो भइया! बात उन दिनों की है जब नागिन फिल्म मंजिल सिनेमा हॉल में चल रही थी और हम कॉलेज में पढ़ते थे।

“गुरु! मैं कहता हूँ देख लो नागिन! मैं सात बार देख चुका हूँ। गुरु पछताओगे ..”

“तू चलेगा?” मैंने महबूब से पूछा था।

“आप की खातिर तो मैं आठवीं बार भी देख आऊंगा गुरु।” महबूब ने हामी भरी थी। “सुदर्शन को भी साथ ले लेते हैं। उसने भी अभी तक नागिन नहीं देखी है।” महबूब का प्रस्ताव था। “मैं उसे टिकट बुक कराने के लिए कह देता हूँ!” महबूब ने खुश खुश, खुशखबरी दी थी।

हम तीनों सड़क पर निकल कर आ गये थे। शो का वक्त हो रहा था। मंजिल तक रिक्शे से ही जाना था। जैसे ही रिक्शा नजर आया था महबूब ने आवाज दे कर उसे बुला लिया था। और तभी हम तीनों ने एक साथ तीन सब्ज परियों को लहराते गाते उधर आते देखा था। उनमें से एक ने रिक्शे वाले को बुलाया था और जब महबूब ने भी रिक्शे वाले को आने को कहा था तो उन तीनों में से एक ने रिक्शे वाले को एक रुपये का नोट दिखाया था।

रिक्शे वाला अब हमारे बीच आ खड़ा हुआ था।

सुदर्शन ने तुरंत ही रिक्शे वाले को दो उंगलियां उठा कर दिखाई थीं और आने का संकेत दिया था। लेकिन उधर से भी दूसरी परी ने तीन उंगलियां उठा कर दिखाई थीं और रिक्शे वाले को आने को कहा था। अब उस मोल तोल और हार जीत की नोक झोंक में हमें आनंद आने लगा था। सुदर्शन ने तुरंत ही चार उंगली उठा कर हाथ के झाले से रिक्शे वाले को फौरन ही आने का आदेश दिया था तो उधर से भी पांच उंगली उठा कर परियों ने हमें परास्त करने की कसम उठाई थी। अब महबूब से रहा नहीं गया था तो उसने जेब से कच्च हरा पांच का नोट निकाला था और हवा में फहराते हुए रिक्शे वाले को कहा था – ये रहा पांच का नोट और साथ में जो तू मांगेगा मिलेगा – रिक्शे वाले भइया यार इज्जत का सवाल है आज! रख ले तू हमारी लाज ..

और रिक्शे वाला हमारे पास चला आया था।

बेचारी परास्त हुई परियां शर्म से सिकुड़ सी गई थीं और मुंह मोड़कर अगली तलाश के पीछे चली गई थीं। और हम विजेता रिक्शे पर सवार होकर मंजिल पहुंचे थे तो हमारे इंतजार में खड़े साथियों ने हमारा जोर शोर से स्वागत किया था। हम रिक्शे वाले को तो भूल ही गये थे। लेकिन वो हमें कैसे भूलता!

“वो .. वो .. पैसे ..?” उसने सुदर्शन के कंधे को छूकर याद दिलाया था।

“अरे हां! तेरे पैसे ..” सुदर्शन को जैसे याद आया था और उसने तुरंत ही जेब से अठन्नी निकाल कर उसकी हथेली पर रख दी थी।

“वो .. वो ..?” रिक्शे वाले ने सुदर्शन को याद दिलाया था वो वायदा जो हमने उससे किया था।

“अरे वो ..?” महबूब बीच में आ गया था। “तुझे पांच रुपये चाहिये?” उसने हंस कर पूछा था। “भांजी के तरौने!” महबूब ने उसे गरियाते हुए कहा था। “अठन्नी बनती है।” उसने गुर्रा कर कहा था।

“चल भाग बे!” सुदर्शन ने कहा था।

लेकिन जब रिक्शे वाला टला ही न था तो महबूब ने उसमें दो लप्पड़ जड़ दिये थे।

“अब तो खुश?” मैंने उसे पूछा था। “चल अब जा!” मैंने उसे हंस कर विदा कर दिया था।

“फिर ..?” प्रेस वाले ने पूछा है!

“फिर भइया – हारेगा भाई हारेगा हुक्के वाला हारेगा!” मैं हंस रहा हूँ। “जीतेगा भाई जीतेगा – नागिन वाला जीतेगा!”

खूब शोर शराबा उठ खड़ा हुआ है। प्रेस वाले का प्रश्न उस हल्ले-गुल्ले में गरूब हो गया है।

मुद्दा तो चुनाव जीतना है जी! हक-हकूक तो सब के सुरक्षित हैं ही!

मेजर कृपाल वर्मा
Exit mobile version