” अरे!…..!! कित मर गई..!! मैं दब गया…!! आजा…..!!”।
” के सै! आऊँ सूं!”।
” या इतनी भारी रजाई गेर दी मेरे ऊपर! जमा दब की र गया मैं!’।
” कोई नी वा तो बदल जागी!”।
और सासु माँ ने ससुरजी को अंदर से लाकर एक हल्की रजाई दे दी थी। दअरसल बात यह थी.. कि जो उन्होंने पहले रजाई ओढ़ी हुई थी.. वो जरा भारी थी.. और उसमें उन्होनें अपने-आप को दबा हुआ.. महसूस किया था। अब बात को पेश करने का अंदाज़ तो वही था.. हरियाणवी।
” अरे! के गेर गी..!! जमा उलझ गया…!!”
ससुरजी के चिल्लाते हुए.. सासु माँ से फ़िर कुछ बोलने की आवाज़ सुनाई दी थी..
” के होया!”।
” जमा हल्की रजाई सै! उलझ की र गया..!!”
और सारा नज़ारा देखते हुए.. इस बार हमारी हँसी न रुकी थी.. भारी रजाई में दब जाया करते थे.. हमारे ससुरजी.. और हल्की रजाई में उलझ जाया करते थे।
हमनें अक्सर जाड़े के हर मौसम में उन्हें सासू-माँ से यही कहते सुना था..
” हल्की में उलझ जाता हूँ! और भारी देती है.. तो दब जाता हूँ!”।
पर कहने का अंदाज़ हरियाणवी ही होता था…” हल्की दे सै! तो उलझ जा हूँ! भारी दे दे है.. तो दब जा हूँ!”। आज वो हमारे बीच नहीं हैं! पर हर जाड़े रजाई उनकी यही बात याद दिला देती है.. इस बात को याद कर चेहरे पर मुस्कुराहट पर उनका हमारे बीच आज न होना आँखों में नमी ले आता है।