कुछ याद है.. माँ! तुम्हें जब हमारा बचपन था.. और हमारा केवल पाँच सदस्यों का एक छोटा सा घोंसला हुआ करता था.. उस वक्त कितनी अनोखी और प्यारी कहानी हुआ करती थी.. हमारी। पिताजी फौज में अफसर थे.. मज़े के दिन और बिंदास ज़िन्दगी चल रही थी.. धीरे-धीरे तुम्हारे हाथ का लज़ीज़ भोजन खाकर हम बड़े होने लगे.. इसी बीच छोटे भाई को mess में दोसे का स्वाद खूब भा गया था। याद है! तुम्हें.. किस तरह से ज़िद्द कर बैठा था.. माँ! घर में ही बनाकर खाएंगें.. ये दोसे! अब हमारे यहाँ का तो भोजन था नहीं! पर तुमनें फ़िर भी रतन भइया जो आर्मी mess में बेहतरीन कुक थे.. बनाने सीख ही लिए थे।

जब भी कभी घर में दोसे बना करते.. त्यौहार का सा माहौल हो जाया करता था.. बड़े भाईसाहब को तो दोसे इतने पसन्द थे.. और अभी-भी दोनों ही भाई इस चीज़ के दीवाने हैं.. जब तक कैसे बनें हैं! चख नहीं लिया करते थे.. रसोई से हटते ही नहीं थे। और हाँ! माँ! ख़ास बात तो यह हुआ करती थी.. कि बाबूजी भी डोसा कार्यक्रम में संग हो लिया करते थे। ख़ूब रंग जमता था.. जब मिल बैठ कर हम पाँचो घोंसले में बैठ दोसों का आनंद लिया करते थे।

और फ़िर जब मैं बड़ी हो गई.. और मैने बनाने सीखे.. तुम मेरी तारीफों के कितने पुल बाँध दिया करतीं थीं।

आज मै अपने घर में भी वही दोसे बनाने जा रही हूँ.. माँ! और मुझे तुम्हारी रसोई की वो खुशबू और जायका साथ में तुम्हारे हाथों का प्यार रह-रह कर याद आ रहा है..

बीता हुआ वक्त और तुम्हारे संग के वो लम्हें अब फ़िर कभी  न लौटेंगे..

पर फ़िर भी न जाने क्यों आज भी यह मन उसी बचपन में लौटकर तुम्हारे और बाबूजी संग दोसे खाने के लिये ललचा रहा है।

तुम एकबार फ़िर लौट आओ माँ..!!

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