दही, दूध का हमारे जीवन में और हमारी सेहत के साथ पुराना रिश्ता है। बहुत सारे शगुन-अपशगुन भी दही-दूध से जुड़े हुए हैं।

बचपन से ही नहाई हुई हूँ.. मैं !दही-दूध में, पर कभी शगुन-अपशगुन पर ध्यान ही नहीं गया।

उम्र, तज़ुर्बे और कहानियों ने मेरी सोच को बदला.. और अब दही-दूध की बर्बादी किस्मत का रूठना मानती हूँ.. मैं।

इसलिए दही-दूध का तिनका भी नाली में न जाए.. इसलिए अच्छे से दही-दूध के डब्बे को साफ़ कर-कर रखती हूँ।

बस! ऐसे ही दही का कटोरदान साफ़ करते हुए.. पल भर के लिए.. मैं theartre में पहुंच गई थी.. जहाँ हमारे स्कूल का annual फंक्शन होने वाला था।

बहुत से क्रायकर्मो में भाग लिया था.. मैने। मुझे याद है.. programm शुरू होने से पहले हम बच्चों को ड्रेसिंग रूम में तैयार किया जा रहा था.. पर मुझे ज़ोरों की भूख लग रही थी.. भूख की कच्ची जो हूँ.. बचपन से।

पर घर में बैठी माँ को मेरे प्रोग्राम शुरू होने से पहले लंच का ख्याल था.. और हेल्पर भइया के हाथ उन्होंने मेरे लिए.. स्कूल में दो डब्बे भिजवा डाले थे।

एक डब्बे में माँ के हाथ के आलू के परांठे थे, और दूसरे डब्बे में.. चीनी वाली बढ़िया मीठी दही थी।

मैं तो अपना लंच देख कर ही बाग-बाग हो गयी थी.. भूखी तो थी.. ही!

आलू के परांठे खाने के बाद, कटोरदान से मुहँ लगाकर मीठी दही पीने का मज़ा ही कुछ और था।

और वो जो दही की मूछें बनी थीं.. उनकी तो बात ही अलग और निराली थी।

वो दही वाली मूछों की छाप और माँ का बसा उसमें प्यार सारे शगुन और अपशगुन से परे था.. और वैसी वाली दही की मूछें भी आजतक फ़िर कभी नहीं बनी।

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