हमारा बचपन दिल्ली में ही बीता.. नहीं! नहीं! शुरू से नहीं.. हाँ! होश संभालने के बाद से ही हम दिल्ली में आ गए थे.. छुटपन में तो कई जगह रहे.. पिताजी का transferable जॉब जो था.. पाँचवीं कक्षा से ही दिल्ली में हैं।

नए शहर का क्रेज और नया सेटलमेंट था.. सब कुछ अच्छा-अच्छा लगता था।

घर में राशन कहाँ से यानी कौन से किरयाने की दुकान से आएगा.. इन सभी की व्यवस्था माँ – पिताजी ने कर ली थी.. रह गयीं थीं.. सब्ज़ियाँ.. तो हर हफ़्ते की सब्ज़ी के लिए चुना गया था.. हमारे घर के पास ही लगने वाला.. वीर बाज़ार!

हर वीरवार को यह बाज़ार लगा करता था.. ख़ूब लम्बा चौड़ा मस्त बाज़ार लगता था.. कोई भी चीज़ ऐसी नहीं थी.. जो कि.. इस बाज़ार में न मिलती हो।

पर सबसे ज़्यादा इस बाज़ार का आकर्षण.. छोले-भटूरे हुआ करते थे.. उस ज़माने में हमें अच्छे से तो याद नहीं.. पर हाँ! बहुत ज़्यादा रुपयों की एक प्लेट नहीं हुआ करती थी।

भई! आहा..! बहुत ही टेस्टी एक प्लेट में दो भटूरे.. बढ़िया गाजर और मिर्ची वाला अचार और वो छोले आप दो तीन बार भी ले सकते थे.. लिखते-लिखते ही वही स्वाद ताज़ा हो आया है.. और मुहँ में भी पानी भर गया है.. गरमा-गर्म कढ़ाई में से फूले-फूले मस्त खुशबू लिए भटूरे निकला करते थे।

हमारे मन को वीर बाज़ार के छोले-भटूरे ख़ूब भा गए थे.. ऐसा स्वाद जीभ पर चढ़ा था.. कि सब्जी लेने हम संग जाएं या न जाएं.. जो भी हफ़्ते की सब्जी लाता.. हमारे लिए छोले-भटूरे ज़रूर पैक होकर आया करते थे.. हमारा घर में लाड़-प्यार कुछ ज़्यादा ही रहा है।

ख़ाकी लिफ़ाफ़े में पैक .. वो दो भटूरे.. वही गाजर और मिर्ची का छोलों संग आचार.. भई! वाह..!

ऐसे उन छोले-भटूरों के दीवाने हो गए थे.. कि हमनें तो अपनी गाड़ी.. दो से चार तक पहुंचा दी थी.. चार-चार भटूरे केवल अब हमारे लिए ही आने लगे थे।

लिखते-लिखते उस लिफ़ाफ़े की खुशबू ने हमें घेर लिया है.. अब वीर बाज़ार वाले भटूरे तो कहाँ से लाएं.. पर रहा नहीं जा रहा.. 

लिखना बंद कर.. तैयारी कर.. आज शाम अपने ही हाथ के भटूरों और छोले के मज़े ले लिए जाएं।

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