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चटोरी क़ानू और कछुआ

chatori kaanu aur kachuaa

बचपन में  क़ानू हमारे पास पंजाब मेल में बैठकर आई थी..यानी जब हम डॉक्टर के पास क़ानू को लेने पहुँचे थे तो उन्होंने हमें बताया था …”कि थोड़ा ठहरिये पंजाब मेल से आ रही है ,टाइम लग सकता है”। ड्रूल्स के पैकेट के साथ घर लायी गयी थी …प्यारी सी कोमल गुड़िया रानी क़ानू। एकदम सफेद छोटा सा ऊन का गोला।जैसा कि जो लोग कुत्ते पालने के शौकीन हैं, जानते हैं कि कुत्तों के लिए सबसे बहतरीन आहार ड्रूल्स या फिर पेडिग्री ही है,और वही कुत्तों के खाने में प्रेफर किया जाता है…इससे उनकी सेहत ठीक रहती है और सुफुर्ती भी बनी रहती है।हमारी भी प्लानिंग एकदम ऐसी ही थी। बहुत बड़ा पैकेट लाये थे हम ड्रूल्स का…जो कि देखेने में एकदम chocos जैसे होते हैं।सोचा था बड़ी होने तक काम आएँगे।पहले दिन हमने क़ानू के भोजन की शुरुआत ड्रूल्स के साथ ही की थी। एक दो दिन दाने चबाये तो थे  पर फिर बिल्कुल भी मुहँ न लगती थी…..बहुत कोशिश की थोड़े टाइम भूखा भी रखते थे पर नहीं….खैर!दूध में रोटी या ब्रेड डालकर देने लग गए थे।क़ानू मैडम को ब्रेड का स्वाद ज़रा भी पसन्द न आया था,हारकर दूध और रोटी पर शुरुआत कर दी थी हमने।ड्रूल्स का पैकेट तो पूरा ही वेस्ट कर दिया था हमारा…क्या करते वापिस तो कर नहीं सकते थे इसलिए एक हमारे ही जानकार जिन्होंने भी कुत्ता पाल रखा था,उनके यहाँ पहुँचा दिया था। दूध और रोटी अभी छोटी सी थी तो यही पसन्द आने लगा था।पहले चुक-चुक करके सारा दूध पी जाती थी अपने बाउल का,फिर जो रोटी के टुकड़े हम डालते थे….एक-एक करकर मुहँ इधर-उधर करकर चबाया करती थी। रोटी के टुकड़े तो पूरी तरह गल जाते थे… लेकिन क़ानू को भी मानना पड़ेगा…हँसी आ जाती है,जब वो प्यारा सा चेहरा याद आता है।

अपने प्यारे गोल-गोल चेहरे को कभी इधर तो कभी उधर पूरी एक्टिंग के साथ रोटी के टुकडों को खाया करती थी। हालाँकि गले हुए टुकड़े होते थे…पर क़ानू जो ठहरी बचपन से ही नखरीली… नन्हा सा सिर और तेज़ दिमाग। ज़िन्दगी ऐसे ही दूध और रोटी पर चल रही थी….कभी कभार अंडा भी उसमे ऐड कर दिया करते थे।

थोड़ी सी बड़ी हो गई थी क़ानू। एकबार की बात है हम सब खाना खा रहे थे..अचानक हमारे हाथ से सब्ज़ी वाला टुकड़ा ज़मीन पर जा गिरा। वहीं खेल-कूद कर रही थी…मैडम। झट!से मुहँ में ले लिया था बस सर्व आनंद हो गए थे क़ानू के। क़ानू को पता चल गया था यह भी खाने की चीज़ होती है। मसाले और नमक मिर्च का स्वाद खूब भा गया था हमारी चटोरी क़ानू को….हमने भी कभी कुत्ते नहीं पाले इसलिए केवल आईडिया ही लगाया था कि ब्रेड या रोटी दूध के संग ही खाएँगे। छोटे से दिमाग में बात आ गयी थी कि कुछ नए टाइप का खाना भी होता है….धीरे-धीरे अपने बाउल वाले खाने के साथ-साथ हमारे साथ भी थोड़ा-थोड़ा खाना खा लिया करती थी। 

दिमाग की तेज तो बचपन से ही थी क़ानू,अब खाने के कलर समझ में आ गए थे..समझ गयी थी कि जो खाना मुझे दिया है और जो बाकी सब खाते हैं, उसमें फर्क है। बस, महारानीजी ने अपनी दूध और रोटी खाना बन्द कर दिया था। अब चॉइस खूब मसाले वाले और नमक मिर्च खाने की हो गयी थी। खाने में कम नमक मिर्च होते थे तो खाना पसन्द ही नहीं आता था,क़ानू को। हाँ! नमक मिर्च ही नहीं प्रॉपर कुकिंग भी होनी चाहये थी खाने की। खाने में कुछ चीज़े favourote हो गई थीं महारानीजी की जैसे गोभी से रिलेटेड सभी कुछ। गोभी आलू की सब्ज़ी गोभी का पराँठा यहाँ तक कि फूल गोभी के डंठल तक की सब्ज़ी। गोभी यानी के फूल गोभी favourite हो गया था।

क़ानू के फूल गोभी से एक वाक्या याद आया था,एक दिन गोभी की सब्ज़ी इतनी पसन्द आयी क़ानू को कि रोटी के टुकड़े से सारी सब्ज़ी कहा ली,और बचे हुए टुकड़े मेरी बेटी को ऑफर कर दिए थे..मानो कह रही हो”दीदी इनको आप खा लेना”। सच!हँसी न रूकी थी इस भोलेपन पर।अलग-अलग कलर पता चल गए थे खाने के…सफेद कलर का खाना यानी एकदम फीका बिल्कुल मुहँ न लगती थी खाने को। 

दूध मीठी चाय या फिर घी निकालने के बाद जो लस्सी बचती थी…वो लस्सी क़ानू के बाउल में डाल देते थे झट से पी जाती थी। जैसे ही लस्सी से बाउल भर जाता था झट से दौड़कर आती थी,और अपनी नाक डुबोकर  गर्दन तक लस्सी लगाकर शौक से पीती थी। प्यारी बहुत लगती थी कब क़ानू के गर्दन नाक और मुहँ के चारों तरफ़ लस्सी लग जाया करती थी। अंग्रज़ी में कहतें हैं न cutiee बस!वही। खाने का स्वाद अगर पसन्द न आता था तो वापिस बाहर निकाल दिया करती थी। क़ानू के पसंदीदा प्यंजनो में कढ़ी चावल भी थे। एक दिन जब घर में कढ़ी चावल बने तो क़ानू से सब्र न हुआ, हम कहते ही राह गए थे”अरे!गरम है”। छोटी सी नाक जलाकर ही चैन आया था क़ानू को। थोड़ी देर बाद होश आने पर वही कढ़ी चावल खाये क़ानू ने।हर तरह का खाना और मीठा भी पसन्द करती थी क़ानू।

घर में सभी को कोई न कोई जानवर पालने का शौक है..एक दिन मेरे पतिदेव काम से लौटते वक्त एक कछुआ ले आये थे…हमने कछुए को पानी भरकर टंकी में डाल दिया था,अगले दिन हमने कछुए को बाहर निकाला ताकि छत्त पर घूम लेगा और थोड़ी हवा लगेगी ….झट!से बाहर आ गई थी क़ानू..बहुत हैरानी से देखा था कछुए की तरफ और धीरे-धीरे उसके पीछे चलने लगी थी , बिल्कुल पास नाक ले जाकर सूंघा था…. पर कुछ ख़ास रिएक्ट नहीं किया था…सोच में ज़रूर डूबी थी, और समझने की कोशिश भी की थी..”कि अरे!ये महाशय कौन हैं?”टंकी पर दोनों पैर रखकर चढ़ जाती थी और अंदर झाँककर देखती थी ,दिमाग में बात आ गयी थी क़ानू के”चलो कोई बात नहीं अब आ ही गया है तो रह लेगा हमारे साथ सीधा-साधा लगता है”। कछुए को हम कभी -कभी निकलते थे….इसलिए ज़्यादा परेशानी न हुई क़ानू को कभी। हम चार और हमारी चटोरी सी क़ानू। हम पाँच सदस्यों की प्यारी सी दुनिया बन गयी थी….हम पाँच सदस्य हो गए थे जिसमें जानवर का ज़िक्र कहीं नहीं था..कछुए सहित। स्नेह,लाड़-प्यार,दुलार और ममता सभी का आदान -प्रदान करते हुए बड़ी हो रही थी क़ानू हमारे साथ।

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