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भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी !!

पर मेरी उम्र मुझ से बहुत छोटी थी !

महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश ;-

और एक मैं था कि वस्तुस्थिति से कट कर अपने विगत की वीथियों में डोलने लगा था ! मैं भगा था और कलकत्ता पहुँच गया था ! न जाने क्यों अपने जीवन की हर घटना मुझे एक सबक-सी लगाती है . चाहे जब अपने विगत से मैं बतिया लेता हूँ ….प्रेरणा पा लेता हूँ ! 

“मरना -जीना अपने हाथ में होता कब है , नरेन्द्र ?”सिस्टर निवेदिता मुझे बता रहीं थीं . “अगर होता तो मैं …स्वामी जी के बाद एक पल भी न जीती !” उन की आँखें नाम थीं . स्वामी जी के निधन का शोक आज भी उन में ताज़ा था . “घटना ही कुछ अजीव थी ! स्वामी जी एक दिव्य पुरुष थे …..एक विचारक थे ….विद्वान् थे …ऋषि थे ! लेकिन जब मौत ने उन्हें अचानक आ घेरा …था …तो वो मौन थे ! 

“स्वस्थ तो हो जाओगे ….न …?” मैंने पूछा था . 

“नहीं ! यह मेरे महाप्रयाण का समय है , निवेदिता ! मुझे जाना ही होगा ! ईस्वर का आदेश है !!” चुप थे , वो . कुछ देर के बाद फिर बोले थे . “मैं तो चाहता था कि …अपने देश के दुःख दूर करने का बाद हो मरता ! गरीबों को ….अशिक्षितों को …सहारा देता …शिक्षा देता ….लेकिन  …”

“हार गए ….?” मैं बोली थी . 

“नहीं ….तो ….” वो लहके थे . “हार०जीत अपने हाथ में होती कहाँ है , निवेदिता ! होता तो सब है …होता ही चला जाता है …! लेकिन ईद होने के पीछे …जो हाथ होता है ….वो दिखाई नहीं देता ! पर होता है ….ज़रूर होता है !!” मौन हो गए थे , वो . 

और मैं सोचती रही थी ….कि किस कदर एक समर्थ व्यक्तित्व …आज एक समर्पण में समां गया था …निःशेष बन गया था ….और निर्विकार बन कर रह गया था …? कुल ३९ वर्ष की आयु में उन्हें मौत ने आ घेरा था ! 

“मैं मरना तो नहीं चाहता था , निवेदिता ! लेकिन ….”छटपटाए थे , वो . “मेरा ….मिशन ……?” 

“मैं पूरा करूंगी ! वचन देती हूँ, स्वामी जी कि मैं ….तन,मन,धन लगा कर …आप के इस अधूरे मिशन को पूरा करूंगी ….!” मैंने एक सांस में कहा था . “मरूं ….या बचूं …मुझे इस की परवाह नहीं ! पर …….”

“मरना तो सब को होता ही है , निवेदिता !” अब की बार वो हँसे थे . “पर कुछ कर के ही मरना उचित है ….श्रेष्ठ है ! और परोपकार तो जीने की एक श्रेष्ठ कला है ! वेदान्त का मूल मंत्र है ….” उन की स्वांस उखड गई थी . कुछ खांसे थे . और फिर …..”

वो चले गए ! पर उन की मौत का शोक मुझे था !! बाकी तो उन की मौत एक फर्ज की तरह थी . समाज का एक वेदांती ….पथ-प्रदर्शक ….प्रेरणा -श्रोत ….बहुत कुछ दे कर ही गया था ….? देश को ही नहीं …वो तो विदेश को भी उपकृत कर के गया था ! वो , पूरे विश्व की एक गूँज थी …सब के लिए एक सन्देश था …एक आद्रता थी ….और था एक आभार ! वो तो सब के थे ….किसी एक के न थे …एक समुदाय के न थे …एक धर्म के न थे ….और न ही एक देश के थे !”

“और ….आप …?” मैंने पूछा था . 

“अकेली रह गई ….निपट अकेली ….! सच कहती हूँ, नरेन्द्र ! इतना खालीपन मैंने कभी ….पहले नहीं महसूस था …! जीने का तमाम मज़ा ही मिट्टी हो गया था ….!! जो जीने का आनंद मैंने उन के सहवास में लिया ….भोग था …महसूसा था …अब सब धुल गया था ! मैं एक विरस-सी ….बे-जान वस्तु-सी …भूली एक बात जैसी …अकेली खड़ी रह गई थी ! मेरा कोई न था ! बिना पतवार की नाव-सी मैं …डावांडोल थी ! अब डूबी ….कि जब डूबी …..?” 

“फिर ….?” मैं अब ग़मगीन था . स्वामी जी जैसे अभी-अभी …मेरी आँखों के सामने ही …महाप्रयाण पर सिधारे थे …मुझे ऐसा ही कुछ लग रहा था ! “फिर ….आप ….?” मैं पूछ रहा था . 

“काया नहीं , पगली ! आत्मा अमर है !!” स्वामी जी की आवाज़ आई थी . “फल नहीं, निवेदिता ! कर्म प्रधान है !! कित्ती बार नहीं बताया , तुम्हें ….? व्यर्थ के शोक में क्या धरा है , पगली ! उठो ! धीरज के साथ कर्म करो !!” उन का आदेश था . 

यह १९०२ का समय था ! ब्रिटिश साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर था ! दिल्ली जाने की तैयारियां हो रहीं थीं . पावर सेंटर अब उठ कर दिल्ली जाना था . राजधानी बनाने के लिए दिल्ली को चुन लिया गया था ! 

“क्यों ….?” मेरी जिज्ञासा जागी थी . “कलकत्ता कौन बुरा था ….?” मैंने पूछा था . 

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