” भई! वाह..! चाची.. आप तो बहुत ही अच्छा बैडमिंटन खेल लेते हो! हमें तो पता ही नहीं था”।

खाली खड़ी थी.. मैं! अपनी छत्त पर.. और बच्चे नीचे ही बैडमिंटन खेल रहे थे..

बस! अपना टाइम पास करने के लिए.. नीचे पहुँच एक मैच खेल डाला था।

मैच खेलते-खेलते मेरा रैकेट हवा से बातें करता हुआ.. बचपन के मैच को खेलने लगा था..

मेरा बैडमिंटन favourite गेम हुआ करता था.. मुझे बचपन से .. चिड़िया और रैकेट से ऐसा प्यार हुआ.. कि.. बस! खेल-खेल कर.. इस खेल में महारत हासिल कर डाली थी.. मैंने!

” देखा! हरा दिया न लव पर.. ही! ही! ही!.. अरे! नहीं! नहीं दुःखी नहीं..  होते! ये लो ! टॉवल अपनी हार के आसूं पोंछ लेना!”।

सहेलियों को आए दिन इस गेम में हराना मेरा रोज़ का काम हो गया था। और हराकर दोस्ती में मज़े के डायलॉग बोलना आदत सी बन गई थी.. नहीं! नहीं! मेरे इस तरह की मज़ाक का कोई बुरा नहीं मानता था.. यह तो खेल-खेल के डॉयलोग्स थे.. लेकिन मित्रता का प्यार और गहरापन अपनी जगह बरकरार था।

 रैकेट तो इतने ख़रीदे थे.. मैने! कि गिनती ही नहीं थी.. वो जो मजबूत डंडी वाले रैकेट होते थे.. वो ज़्यादा चल जाया करते थे.. और लकड़ी की डंडी वाले थोड़े कम! 

पर मेरी पसंद वो लकड़ी का बैडमिंटन रैकेट ही हुआ करता था.. देखने में भी मुझे बहुत ही सुंदर लगता था।

अब हर दो दिन में जमकर मैच खेलने पर शटलकॉक टूट जाया करती थी.. तो पूरा का पूरा डब्बा ही खरीद कर रख लिया था..

आज मैच खेल कर और एकबार फ़िर इन बच्चों को लव पर हराकर हाथ कंधे तो बहुत दर्द हुए थे.. पर एकबार फ़िर चैंपियन बनने का.. और बीते दिनों को याद कर ख़ुश होने का मज़ा ही कुछ और था।

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