उन्हीं उलझनों में डूबा रहता यह मन.. फ़िर न जाने कब सवेरा और साँझ आ जाती है.. रात की थकान लिए.. और फ़िर कुछ ताने-बाने लिए.. अगले दिन के इंतज़ार में यह मन.. फ़िर कुछ नया करने के लिए तैयार.. कुछ पलों यह फ़िर घंटों के लिए.. स्वप्न लोक में चला जाता है.. यह जीवन चक्र हमारा यूहीं अच्छा-बुरा समझते और उलझनों को सुलझाते चलता ही चला जाता है.. और हम अंत तक न जाने कब पहुँच जाते हैं..
क्यों न इस जीवन रूपी किताब के पन्नों को पलटते हुए.. और अपने हर निर्णय में परमात्मा को शामिल करते हुए.. अग्रसर हुआ जाए..
डर को किनारे रख और परमात्मा का हाथ पकड़.. इस सफ़र को उस अंत तक तय करके देखा जाए..!