” अरे! माँ! तुम…! आ जाओ! अंदर.. बाहर क्यों खड़ी हो..!

कैसी हो तुम..?”

और माँ मुस्कुरायीं थीं।

गणपति विसर्जन का दिन नज़दीक आ रहा था.. और श्राद्ध पक्ष शुरू होने वाला था.. अचानक बैठे-बैठे माँ याद आ गईं थीं। समय का चक्र वक्त बदलते देर नहीं लगती.. बचपन से बडी हो गई हूँ.. पितरों को याद तो हर साल ही किया जाता है.. पर पता नहीं क्यों कभी श्राद्ध पक्ष पर विशेष ध्यान नहीं गया..  हालाँकि हर रिश्ते को याद हमेशा दिल से ही किया.. आज माँ संग नहीं हैँ.. बस! कल्पनाओं का ही उनके संग साथ रह गया है.. 

अकेले में बैठ.. उन सभी पूर्वजों का चेहरा मन में घूम जाता है.. जो आज अलविदा कह चुके हैं। 

यह सोच औऱ मान्यता तो ठीक है.. कि श्राद्धों में ही हम अपनों को याद करते हैं.. और उनके नाम का दान करते हैं..  

पर श्राद्ध ही क्यों.. 

मैने अपनी माँ से कभी ये सवाल नहीं पूछा था.. कि जब तुम हमसे एकदिन यूँ अचानक अलविदा कह कर चली जाओगी! तो क्या किसी पक्षी के रूप में हमसे मिलने श्राद्धों में ही आओगी!

अगर पूछा होता.. तो न जाने क्या उत्तर रहा होता उनका!

पर हक़ीक़त तो यह है.. कि इस तरह के सवाल हम कभी अपनों से नहीं पूछते.. और पूछना भी नहीं चाहते.. हमारी दुनिया हमारे अपनों से ही तो है.. मन इस बात की कभी गवाही नहीं देता.. कि एक-एक करके एक दिन सबको जाना है.. इस संसार से अलविदा कहना ही अटल सत्य है!

क्यों कह जाते हैं.. हमें हमारे प्यारे एक दिन अलविदा मित्रों! क्यों यह मन उनको ढूंढता ही रह जाता है.. कभी सपनों में, कभी ख्यालों में.. और कभी किसी कल्पना में मन उन्हें ढूँढने लग जाता है..

श्राद्ध पक्ष को लेकर जो मान्यता बनाई गई है.. सो तो है! ही.. पर हमारे हिसाब से .. आज जो रिश्ते हमें अलविदा कह गए हैं.. उन्हें हम श्राद्ध के दिनों में पूजा-अर्चना द्वारा बुला याद करते हैं.. और उनकी आत्मा की प्रसन्नता के लिए.. दान-दक्षिणा भी करते हैं..

पंक्तियाँ तो अभी ख़त्म ही नहीं हुईं.. माँ का मुस्कुराता हुआ चेहरा फ़िर सामने आ गया.. हमारे! और हम पूछ ही बैठे..

” किस रूप में आओगी माँ तुम! हमसे इन श्राद्धों में मिलने! कभी न सोचा था.. कि तुम्हारे अलविदा कहने के बाद तुमसे ऐसे भी मुलाकात हो सकती है!”।

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