पुराने डब्बे बोतल
पेपर, पुराना सामान दे दो..!!
कबाड़ी..!!
कबाड़ी वाला..!!
” आ, जाओ! माँ! कबाड़ी वाला आ गया है! हमनें रोका हुआ है!”।
” आते हैं! थोड़ा ठहरो! पुरानी तुम्हारी स्कूल की किताबें समेट रहें हैं!”।
गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थीं.. स्कूल का पुराना साल भी ख़त्म हो गया था.. अभी नया साल और नई पढ़ाई शुरू होने में समय था.. सोचा चलो! क्यों न पुराना सामान और बच्चों के पुराने साल की किताबें वगरैह कबाड़ी को बेच देते हैं। बस! इसी काम को करने में हम सवेरे से ही लगे हुए थे। कबाड़े वाले की आवाज़ सुनते ही बच्चों ने हमें पुकारा था..
लेकिन कबाड़े वाले की आवाज़ के साथ-साथ कानू का भी शोर शुरू हो गया था। जब भी कोई दरवाज़े से गुजरता है.. कानू का भौंकना शुरू हो जाता है.. और फ़िर हमें अपनी प्यारी कानू को मुश्किल से शांत करना पड़ता है।
आज भी हम जैसे ही पुरानी रद्दी लेकर बाहर निकले थे.. कि कानू का भी हमारे पीछे फट से दौड़ना हो गया था.. बेचारे! कबाड़े वाले भइया तो कानू के यूँ भौंकने से डर ही गए थे। फटाक से चैन लगाकर कानू को काबू कर जाली वाले गेट के अंदर बन्द कर दिया था.. जल्दी में हमें कानू का पट्टा तो मिला ही नहीं था।बन्द तो हमनें कर दिया था.. पर गुड़िया जैसी कानू को हम कबाड़े वाले भइया को रद्दी देते हुए, साफ़-साफ़ दिख रहे थे।
हमारा तो कबाड़े का काम यहीं ख़त्म हो गया था.. हम अपने अगले कामों में व्यस्त हो गए थे.. बच्चे अपने खेल-कूद में वयस्त हो गए थे।
” माँ! तुमनें कानू का काला वाला घुँघरू का पट्टा देखा कहीं!. कैसे घुमाने लेकर जाएं हम कानू को.. हमें तो पट्टा कहीं दिख ही नहीं रहा है!”।
कानू का पट्टा न जाने कहाँ खो गया था.. बच्चों ने और हमनें घर का कोना-कोना छान मारा था.. पर हमें कहीं पट्टा दिखाई नहीं दे रहा था।
” अरे! काना! कहीं आपने अपना पट्टा कबाड़े में तो नहीं बेच दिया! बताओ..!! बताओ! बताओ.. !! न!”।
बच्चों ने प्यारी कानू से मज़ाक में पूछ लिया था.. और जिसका जवाब भी प्यारी कानू ने हाँ में ही दिया था.. मानो अपनी गुलाबी रंग की जीभ साइड में लटकाकर कह रही हो,” जैसे दीदी भइया अपनी पुरानी किताबें कबाड़े वाले अंकल को बेच रहे थे, वैसे ही हमनें भी अपना पुराना पट्टा उन्हें दे डाला था”।
हमनें भी अपनी प्यारी कानू के गाल पर प्यार करते हुए.. कहा था,” बताओ ! तो! कानू ने पट्टा बेचकर क्या किया! चलो! मम्मा को बताओ!”।
” अरे! माँ! हम बताते हैं.. ज़रूर कानू पट्टे के पैसों से आइस-क्रीम खा कर आ गई होगी!”।
अब हमें पट्टा तो कानू का मिल ही नहीं रहा था.. पर इन्हीं सब प्यारी बातों से हम कानू संग अपना मनोरंजन करे चल रहे थे।
” कबाड़े..!! पेपर दे दो! पुराना डिब्बा बोतल दे दो!”।
“अरे! भइया! हमनें तो आप को उस दिन सारा कबाड़ा दे दिया था.. फ़िर आज यहाँ क्यों..??”।
” अरे! दीदी आपके कुत्ते का पट्टा उस दिन बच्चन की किताब में था.. उही वापस देने का आए हैं!”।
और हमनें नीचे जाकर अपनी प्यारी कानू का पट्टा वापस ले लिया था.. पट्टे को हाथ में लेते हुए.. और प्यारी कानू को गले से लगाकर हमनें मज़ाक में कानू के कान में कहा था,” ऐसे करते हैं.. क्या! दीदी-भइया की नकल! वैसे कानू क्या करता पट्टा बेचकर!”।
इतना कह मुस्कुराकर एक बार फ़िर हम सब चल पड़े थे.. प्यारी कानू के संग।
हमारी कानू का कबाड़े वाले भइया के पास पट्टे का जाना आप सभी को कैसा लगा! हमें कानू के लिये अपना प्यार और विचार लिखकर भेजिए! और साथ ही जुड़े रहें कानू के प्यारे किस्सों के साथ।