रमेश की घटिया बक़वास सुनने के बाद अब बिना ही कुछ बोले सुनीता घबराई हुई सी ऊपर आ गई थी। सुनीता ने ऊपर कमरे में आते वक्त दर्शनाजी के चेहरे पर खिली हुई मुस्कुराहट देखी थी..जैसे कि कोई मोर्चा फतह कर लिया हो.. उनकी आँखों में जीत की खुशी थी। रमेश ने इतनी बदतमीज़ी और घटिया स्वर में ड्रामा किया था.. कि सुनीता के पैर अब काफ़ी देर तक काँपते रहे थे। प्रहलाद था, तो अभी नन्हा सा बालक मगर प्रहलाद के चेहरे की मासूमियत इस बात को दर्शा रही थी.. मानो बच्चा सब कुछ समझ रहा हो। हमें ऐसा लगता ही है.. ” अरे! ये तो अभी बच्चा है.. कुछ नहीं जानता, पर ऐसा बिल्कुल नहीं होता बच्चे बड़ों से कहीं ज़्यादा जानते और समझते हैं.. बेशक बोलें कुछ नहीं। प्रहलाद डरा और सहमा खिड़की के पास चुप-चाप खड़ा था। सुनीता को कमरे में खड़े हो एक पल को ऐसा अहसास हुआ था.. कि हो सकता है.. रमेश अपनी की हुई गलती के लिये सुनीता से माफ़ी मांगें.. हो सकता है.. कि रमेश को यह अहसास हो जाए.. कि उसनें सुनीता को ग़लत शब्द बोले हैं।
शाम का समय था.. सुनीता रमेश के लौटने का इंतेज़ार कर रही थी.. रमेश बाज़ार गया हुआ था। रमेश बाज़ार से देर रात को लौट आया था,’ अरे! इसके चेहरे पर तो कोई पछतावा नहीं है..यह तो एकदम मस्त है.. इसके चेहरे पर भी कोई गिला-शिकवा नहीं दिख रहा”। सुनीता ने मन ही मन अपने आप से बात की थी। सुनीता रमेश के इस घटिया अंदाज़ को क्यों नहीं समझ रही थी.. क्यों नीच वयवहार को चुप-चाप रहकर बढ़ावा दिये जा रही थी। किस डर के कारण सुनीता ने अपने आत्मसम्मान को गिरवी रख रमेश के ही साथ आगे चलने का फैसला ले लिया था।
चलो! कोई बात नहीं.. जो हुआ सो हुआ!.. फ़िर से ज़िन्दगी वैसी की वैसी शुरू हो गई थी.. जिसमें केवल अभी रमा से बात करना और उसकी तरफ़ देखना ही चर्चा का विषय बना हुआ था। रमेश रोज़ शाम को खरीदारी कर घर लौटता था.. जिसकी ज़रूरत है.. वो और जिसकी नहीं है.. वो भी!.. ले ही आता था। सुनीता का इरादा अब भी रमेश के साथ घर बसाने का ही था.. रमेश द्वारा लाए हुए.. रोज़ के फ़ालतू सामान और खिलौने देखकर सुनीता सोच में पड़ गयी थी, और एक दिन रात को सुनीता ने रमेश से कह ही डाला था, ” आप ये बेवकूफ़ी क्यों करते हो!. . अरे! पैसा बचा रहेगा तो काम ही आएगा.. ये रोज़ खिलौने लाने की कोई ज़रूरत नहीं है”।
रमेश सुनीता का ” बेवकूफ़ी” शब्द सुन ग़ुस्से में तमतमा गया था। और रमेश ने अपनी बक़वास का घटिया नाटक एक बार फ़िर कर डाला था। रात का समय था.. रमेश की आवाज़ दूर-दूर तक गूँज रही थी। प्रहलाद बिस्तर में सहम गया था। सुनीता अकेली कांप उठी थी। जब रमेश की आवाज़ें दूर-दूर तक जा सकतीं थीं.. तो क्या घर के सदस्यों को सुनाई न पड़ रहा था.. और तो और दर्शनाजी का कमरा तो बिल्कुल रमेश के कमरे के नीचे ही था.. पर सुनीता के कानों में मदद की कोई भी आवाज़ नहीं थी। घबराहट से सुनीता ने सवेरे अपने घर दिल्ली फ़ोन करने का निर्णय लिया था।
सवेरा होते ही सुनीता ने मायके फ़ोन पर रात वाली सारी दास्ताँ भाई और पिताजी को सुना दी थी। ” रमेश नहीं रमेश की माँ!.. कारण है.. सारे ड्रामे का। साँप को नहीं साँप की मौसी को मारा जाता है.. अगर पेड़ की जड़ है.. तो मुसीबत बार-बार जन्म लेगी.. हथियार डाल कर परमात्मा का नाम लो!.. और रमेश में बुराई देखने की बजाय अच्छाई देखने की कोशिश करो.. नहीं तो उस आदमी के साथ जीवन पूरा करना और उस घर में रहना मुश्किल हो जाएगा .. अपना संघर्ष खुद ही करना पड़ता है”। बाप-भाई ने सुनीता को फ़ोन पर समझाते हुए कहा था।
अब सुनीता को रमेश के साथ आगे बढ़ने का एक नया पहलू मिल गया था। इधर विनीत ने हर इतवार को पंडित के पास जाने का नया नाटक शुरू कर रखा था। सुबह ही घर से निकल जाया करता था.. और देर से शाम को घर आता था,” बहुत लम्बी लाइन लगी रहती है.. उधर.. पंडितजी का कहना है, कि वास्तु शास्त्र से अगर फैक्ट्री चलायेंगे, तो बहुत तरक़्क़ी होगी”। विनीत ने हर इतवार को मिलने वाले उस पंडित को लेकर घर में बताया था।
सुनीता जुड़वाँ बच्चों की माँ बनने वाली थी.. उसका सातवाँ महीना शुरू हो गया था.. अब थोड़ी तकलीफ़ भी महसूस करने लगी थी। ” आप जब साँस भरते हो!.. तो मुझे डर लगता है”। दर्शनाजी ने सुनीता से कहा था।
क्यों कहा दर्शनाजी ने सुनीता से इस तरह.. क्या तात्पर्य था, उनका इस तरह की बात करने का.. क्या कहना चाह रहीं थीं.. वो। ज़रूर कोई न कोई विशेष मतलब रहा होगा .. दर्शनाजी का इस तरह से सुनीता से बोलने का.. अब कोई साधारण स्त्री तो थीं नहीं.. दर्शनाजी.. दिखतीं कुछ थीं, और थीं कुछ। मामला सुनीता की डिलीवरी को लेकर था.. सासू-माँ को तो बहू से कोई लेना-देना ही नहीं था.. ब्याह कर तो ले आई थी.. अब फ़र्ज़ पुरे कोई भी करता रहो। खैर! आख़िर में बदलते हालात होते हुए भी दिल्ली से भाई सुनील ने सुनीता को एकबार फ़िर डिलीवरी के लिये दिल्ली आमंत्रित किया था।
” भरत नहीं रहा”।
” क्या!!”।

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