सुनीता प्रहलाद के साथ अब मायके में ही रह गई थी, प्रहलाद की परवरिश नानी-नाना की देख-रेख में शुरू हो गई थी। गर्मियों के दिन थे, और प्रहलाद का पीलिया अब पूरी तरह से ठीक हो गया था। अब प्रहलाद का रंग पीले से लाल सा पड़ गया था, क्योंकि शिशु का इन्फेक्शन ख़त्म हो अब शरीर वापिस उसी रूप में आ रहा था। प्रहलाद वाकई में बहुत प्यारा सा बच्चा था, एकदम गोल-मोल और सुन्दर। इधर इंदौर से कोई भी ख़बर न थी, जैसे के बच्चे का नामकरण करते हैं, या फ़िर कोई लड़का होने की खुशी में कोई पार्टी-शॉर्टी। हाँ! फ़ोन पर ज़रूर रमेश सुनीता से प्रहलाद और उसका हाल-चाल पूछता रहता था। यूँहीं दिन बीत गए, और प्रहलाद अब महीने भर का हो गया था। रमेश का एक दिन सुनीता को फोन आया था,” मैं लेने आने वाला हूँ, सारी तैयारी के साथ रहना”।

फ़ोन पर रमेश की बात सुन.. सुनीता ने माँ को बताया,” माँ! रमेश मुझे और प्रहलाद को लेने आने के लिये कह रहे थे”।

अनिताजी ने मुकेशजी से रमेश के आने की ख़बर के बारे में चर्चा की थी,” देखो! रमेश अब माँ बेटों को लेने आने की बात कर रहा है, कैसे क्या करना होगा.. बच्चे का पीलिया भी साथ जाएगा.. हमें पूरे परिवार के कपड़े लत्ते व जो राशन लड़की को दिया जाता है, सबकी तैयारी करनी होगी”।

मुकेशजी ने अनिताजी की बात पूरी होने के बाद कहा,” ज़रा! मेरी मानो तो एक बार सुनील और अनु से भी पूछ लेते हैं, घर के बड़े बेटे बहु हैँ”।

मुकेशजी की बात से पूरी तरह से सहमत हुई अनिताजी ने सुनील और अपनी बहू अनु को बुलवा भेजा था। सुनील और अनु के आकर बैठने के बाद अनिताजी और मुकेशजी ने बच्चे के पीलिये जो कि इंदौर भेजना था, उसकी चर्चा दोनों से करी थी। यहाँ पीलिये से मतलब उस रिवाज़ से था, जिसमें की मायके से सामान लड़की और नवजात शिशु के साथ उसकी ससुराल को जाता है। मुकेशजी की पूरी बात सुन सुनील ने कहा था,” लेकिन! पिताजी! इंदौर वाले तो कोई भी दावत प्रहलाद के नाम की कर ही न रहें हैं, तो फ़िर हम क्यों फ़ालतू के रिवाज़ के पचड़े में पड़ें.. केवल सुनीता को कपड़े और दो- चार जोड़ी जो बच्चे के बनतें हैं, दिये देते हैँ।

मुकेशजी को सुनील की बात ठीक तो लगी थी, पर फ़िर भी मुकेशजी ने और अनिताजी ने सुनील की बात पर गौर करने के बाद अकेले में यह फैसला लिया था,” नहीं! नहीं! सुनील की बात को छोडो अभी बच्चा है, समाज के ऊंच-नीच नहीं जानता.. हम अपने ढँग से अपनी बेटी को लदा हुआ भेजेंगे”।

मुकेशजी ने सुनील की सही सोच को एक तरफ कर यह निर्णय लिया था, कि वो सुनीता को पीलिये के सारे सामान सहित ही इंदौर में विदा करेंगे। अपनी बिटिया से हर कोई माँ-बाप प्यार करता है, पर ऐसा दिखावा जो कि बच्ची के हित में न जाकर नुकसान कर जाय किसी काम का न होता है.. रामलालजी के यहाँ विनीत की छोटी बेटी के बाद इतने साल बाद पोता आया, और किसी ने भी किसी भी तरह की दावत या फ़िर समाज के साथ कोई भी खुशी बाँटने की तरफ़ ध्यान न दिया था.. सारा परिवार मस्त पड़ा था.. किसी को प्रहलाद को लेकर किसी भी तरह के रिवाज़ की कोई भी फ़िक्र न थी। समाज में रहते हुए भी सामाजिक नियमों का तो बिल्कुल भी ध्यान न करता था, रामलालजी का परिवार। अरे! भई! जब दर्शनाजी के हिसाब से आपका राजा का घर है, और मोतियों की भी कमी नहीं है, तो घर में आई खुशी को समाज में मिठाई वगरैह बाँट कर तो मना लेते। कोई भी किसी के दिये हुए भोजन या फ़िर तोहफे का भूखा नहीं होता, बस! इतना ही होता है, कि अपनी खुशियाँ और दुख जब समाजिक रूप से बाँटते हैं, तो समाज और लोगों के दिलों में हम अपने लिये एक स्थान सुरक्षित कर लेते हैं। अपने घर मे रामलालजी के परिवार की तरह मोतियों को इकठ्ठा करना एक अलग बात होती है, और समाज में यानी अपने सामाजिक बहन-भाईयों के दिलों में जगह बनाना एक अलग बात होती है.. मज़ा तो समाज में अपना स्थान बनाने में है, घर में इतने ही मोती इकट्ठे करने चाहिये जितने की ज़रूरत हों, कुछ मोतियों का अपनो के साथ माला बनाने का भी अपना ही एक अलग मज़ा है।

मुकेशजी को भी भावनाओं में बहकर नहीं, बल्कि सामने वाले यानी के रामलालजी के परिवार के नाटक को मध्यनज़र रखते हुए.. केवल अपनी पुत्री सुनीता को और प्रहलाद को वस्त्र देकर और एक-आध और कोई ज़रूरत की वस्तु दे विदा करना था। बात यह थी, कि सुनीता को दो-चार दिनों के नाटक में भाग न लेना था, रामलालजी के परिवार में, बल्कि सारी उम्र का रिश्ता निभाने जा रही थी, सुनीता.. जिसमें नियति की सच्चाई के अनुसार बाकी सभी को एक दिन पीछे रह जाना था, आगे केवल सुनीता और रमेश अपने आने वाली पीढ़ी के साथ जाने वाले थे.. जिसकी नींव दिये हुए तोहफों पर नहीं, बल्कि कमाई के मोतियों पर रखी जानी थी, जो अभी सुनीता नहीं बल्कि मुकेशजी के समझने वाली बात थी। खैर! गलती मुकेशजी की नहीं थी, अब फैक्ट्री वाले लोगों में बेटी ब्याही थी.. और उसका हर सुख चाहते थे.. इसलिये थोड़ा बहुत अपनी तरफ़ से लगाने में कोई बुराई न समझ रहे थे। पर कमाल की बात थी, रामलालजी का परिवार भी मंझे हुए कलाकारों का निकला था।

खैर! रमेश सुनीता को लेने दिल्ली आ गया था, और माँ-बापू ने अपने सोचे हुए अनुसार बेटी को विदा करने की सारी तैयारियाँ कर रखीं थीं। मुकेशजी और अनिताजी ने अपने सारे परिवार सहित बेटी और अपने नाती की विदाई बेहद शाही ढँग से की थी.. बच्चे और बिटिया के कपड़े-लत्ते, परिवार के कपडे व पैंतीस किलो का बासमती चावल का बोरा, दालें, घी और अन्य मिठाई-बिठाई खाने का सामान इतियादी। मुकेशजी की गाड़ी सुनीता को स्टेशन ले जाने के लिये छत्त से लेकर डिग्गी तक भर जाया करती थी। आख़िर सुनीता भी तो रईस बाप की ही बेटी थी, अब सामने वाले ही धोखा देना चाह रहे थे, तो इसमें सुनीता और उसके परिवार की कोई भी गलती न थी। किसी के चेहरे पर उसकी नियत नहीं लिखी होती। और न ही दो पल साथ बिताने से किसी इन्सान का ही पता चलता है।

खैर! रमेश खुशी-खुशी ससुराल से ढ़ेर सारे तोहफ़े लेकर सुनीता और प्रहलाद के साथ अब इंदौर पहुँच गया था। प्रहलाद को आया देख वाकई सारे परिवार को सच्ची खुशी हुई थी। रामलालजी तो पोते को देख कर एकदम ही खिल से गए थे। रमा ने लपक कर प्रहलाद को अपनी गोद में ले लिया था। रमा के गोद में बच्चे को लेने और उसे लाड़ करने से कहीँ भी जलन की भावना न झलक रही थी। विनीत की दोनों बेटियों ने भी अपने छोटे भाई का स्वागत लाड़-प्यार से ही किया था। बस! एक दर्शनाजी ही रह गईं थीं, जिन्होनें अपने पोते को देखते ही गले से न लगाया था।

दर्शनाजी ने प्रहलाद को देखते ही कहा था,” लेजा इसने ऊपर” ऊपर कमरे में जाने को कह रहीं थीं, दर्शनाजी, प्रहलाद को लेकर सुनीता को।

अगले दिन सुबह ही सुनीता प्रहलाद को लेकर सास-ससुर के पाँव छूने नीचे प्रहलाद को लेकर आई थी। सुनीता ने रामलालजी के पाँव छुए थे, रामलालजी पोते प्रहलाद को देखकर बहुत ही खुश हो गए थे, और फटाक से सुनीता के हाथ से प्रहलाद को अपनी गोद में उठा लिया था, यह देखकर दर्शनाजी ने तुरन्त ही रामलालजी और सुनीता दोनों को टोका था,” बस! रेन दे, ज़रूरत ना है, पैर छीलने की, और इसने ले जा”।

सुनीता को रामलालजी के पैर छूने के लिये मना करना और मासूम जान को देखकर सुबह के वक्त यूँ रूखा होना.. क्या तरीका था, दर्शनाजी का। इतनी माहौल में कड़वाहट और रूखे पन में कौन सा रास्ता अपनाएगी सुनीता प्रहलाद की परवरिश का।

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