शरद ऋतु शुरू हो गयी है और हवाओं में हल्की-हल्की सी मिठास घुलती जा रही है। सुबह होते ही जब मैं अपने घर के आँगन के बहार निकलती हूँ, तो ये मीठी ठंडी  हवा की लहरें मेरे मन के तारों को छू कर निकल जाती हैं, और मेरा मन अपनी ही किसी दुनिया में खो  जाता है। मेरे मन की किताब का हर एक पन्ना खुल सा जाता है ,और मैं बहुत देर के लिए यथार्थ को भूल कर अपने जीवन में बीते कुछ सुनहरे पलों में खो जाती हूँ, न जाने कहाँ गुम हो जाती हूँ,की मैं खुद को भी वापिस लाना मुश्किल समझ बैठती हूँ। इन सुनहरे पलों में मेरे बचपन की अनमोल यादों का पन्ना सबसे पहले खुल जाता है। बचपन की उस लहर में मेरा मन बहता चला जाता है,जिसको भूल पाना असंभव है। अकेले  में बैठकर चेहरे पर मुस्कुराहट सी आ जाती है, और मेरी आँखों के सामने मेरे अपने बचपन के सुनहरे पलों की एक फिल्मी रील शुरू हो जाती है। सच !कहूँ उस बचपन में जो मेरा अपना था कभी लौटते हुए मन डर जाता है, और मुझसे कहता है,”अरे!पगली कहाँ जाने की कोशिश कर रही है, लौट कर तो यहीं वापिस आना है ,मत जा संभाल अपने आप को”। पर नहीं आज तो मैं अपने बचपन में वापिस जा कर ही रहूँगी, और अपने अहम से कहती हूँ, चिन्ता मत करो लौट कर वैसी की वैसी आ जाऊंगी।
बहुत ही बिंदास और मस्त मोला लड़की हुआ करती थी मै बचपन में। देखने में भी अच्छी खासी मोटी थी। बचपन से ही खाने-पीने की बेहद शौकीन रही हूँ, मैं। माँ ने खूब खिला -पिलाकर बड़ा किया था मुझे, कभी मेरे खाने-पीने पर रोक न  लगाई थी। मेरे माता-पिता ने मुझे कभी किसी बात के लिए कभी न टोका था, कभी न कहते थे ,”कि “अरे!इतना मत खाया करो मोटी हो जाओगी अच्छी नहीं लगोगी”। सच!कहूँ बेहद मोटी लड़की हुआ करती थी मैं बचपन में, पर मेरा मोटापा मेरी पर्सनालिटी को कभी फीका न कर पाया था। अपनी बचपन  की फेमस हस्ती हुआ करती थी मैं। मुझे  याद है, घर के आस-पास बहुत सारी सहेलियां थीं मेरी। सारी सहेलियों में बॉस बनकर रहा करती थी मैं। सहेलियों के ग्रुप में खूब चलती थी, मेरी। खेल -कूद जब हम शाम को किया करते थे, तो मेरा कहा कोई भी नहीं टालता था,बल्कि सारी फ्रेंड्स पूछा करती थीं मुझसे,”यार!रचना कैसे क्या करना है?”। सच!बड़ा मज़ा आता था, एकदम बिंदास लाइफ थी मेरी। घर में भी किसी बात का कभी अभाव नहीं देखा, सभी की लाडली रहीं हूँ मैं। मैंने बचपन में इतना खुलापन देखा और महसूस किया, कि कभी उस उम्र में मेरे जहन में कभी कोई नकरात्मक  ख़याल आये ही नहीं। उस ज़माने में मुझे सारी दुनिया अपने कदमों के नीचे लगा करती थी, ऐसा लगता था रचना ही सब कुछ है। हर परिवारजन और समाज और अपने स्कूल में इतनी तारीफ़ मिलती रही मुझे ,कि मैने अपने-आप को तारीफों के ढ़ेर में कहीं दबा लिया था। कभी कोई मुझे ऐसा इन्सान नहीं मिला मेरे बचपन में जिसने मुझे मेरे खुद के नेगेटिव पॉइंटस से अवगत कराया हो। मेरे हिसाब से उस ज़माने में मुझ से ज़्यादा समझदार और इंटेलीजेंट कोई था ही नहीं, आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ, अपने बारे में उन तारीफों के पुलों के बारे में सोचकर थोड़ा दुखी हो जाती हूँ, आज उम्र के इस पड़ाव पर मुझे समझ आ रहा है, की तारीफों के ढ़ेर में अपने आप को इतना मत खो की अपने सही को पहचानने में मुश्किल खड़ी ही जाए। आज ज़िंदगी के इस मोड़ पर आकर मुझे लगता है, की काश!”बचपन नाम के जंकशन पर फिर से कोई रेल  पकड़कर चली जाऊँ ,और रचना नाम की लड़की में कुछ बदलाव करके वापिस आ जाऊँ”ताकि मुझे आज मन चाही रचना मिल सके। पर यह हक़ीक़त नहीं है, बीता हुआ पल, गुज़रा हुआ कल कभी वापिस नहीं आते। रह जाते है, केवल वह पल जिनके बारे में हम सोचते ही रह जाते है,काश!ऐसा न होकर ऐसा होता। खैर!खेलों में भी बहुत अच्छी थी मैं, लगभग सारे खेल खेलें हैं मैंने,चैम्पियन हुआ करती थी अपने ग्रुप की मैं। बैडमिंटन मेरा favourite गेम हुआ करता था,बेहद अच्छा खेल लेती थी मैं इस खेल को। विवाह के पश्चात भी मैंने बैडमिंटन जब अपनी  ससुराल में खेला था, तो सबने बहुत वाह-वाह करी थी मेरी। मित्रों यह मैं अपनी जीवनी नहीं लिख रहीं हूँ, और न ही अपनी तारीफ़ के आप सभी मित्रों से दो शब्द माँग रही हूँ, यह तो केवल मेरी यादों के वो सुनहरे पल है,जिनमें मैं आप सभी मित्रों को आमंत्रित कर बैठी हूँ। स्कूल में भी बहुत मज़े किये हैं, मैने। लिखाई-पढ़ाई में तो अच्छी थी ही मैं, टीचरों और अपनी क्लास के सभी बच्चों में बहुत नाम था मेरा, अपनी क्लास की सदा मॉनिटर रहीं हूँ, मैं। क्लास के टॉप टेन स्टूडेंट्स में  हमेशा रहती थी मैं, अपनी अध्यापिकाओं मैं भी एक अलग पहचान थी मेरी। कहा,न व्यक्तित्व में कोई कमी न थी, पर फिर भी मेरे हिसाब से कुछ कमी रह गयी थी मुझमें, या फिर से वही कहना पड़ेगा कि तारीफों के ढ़ेर में कहीं खो गई रचना…मुझे बार-बार ऐसा लगता है कि अगर इस ढेर को मेरे ऊपर से थोड़ा हटा दिया जाता, तो वो रचना ढ़ेर में से ऊपर निकल कर आती जिसकी मैं आज अकेले में बैठकर कल्पना करती हूँ, पर अपनी रचना को और अपने-आप को और किसी में ढूंढ़ने की कोशिश नहीं करती हूँ। अपनी कल्पनाओं में उस बदली हुई रचना को देखकर खुद ही खुश हो लेती हूँ, और अपने आप से कहती हूँ,”यही तो होना चाहिए था तुम्हें, कहाँ गलती कर दी,थोड़ी अक्ल तो लगाई होती,अरे!ज़माने को ही देखकर समझ जातीं। पर अपने आगे गिनतीं ही कहाँ थीं किसी और को..अब भुगतो”।
मेरे अपने बारे में एक सबसे मज़ेदार बात यह है कि खाने-पीने की मैं बेहद शौकीन रही हूँ, खूब सारा खाना खाया करती थी मैं बचपन में। स्कूल लाइफ में तो मेरा नाम ही मोटी पड़ गया था। मेरे क्लास के मित्र ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया करते थे”रचना,रचना”सुनाई न पड़ता था मुझे,”मोटी!!”कहते ही झट से बोला करती थी”क्या है”? आज यह सब कुछ सोचकर बहुत हँसी आती है,मुझे। पर मोटी शब्द में प्यार और अपनापन बहुत था, जो रचना में नहीं है। हैरानी की बात तो यह है, कि आज जब मुझे मेरे पुराने दोस्त फेसबुक पर मिलें है,तो मोटी बोलकर ही “हेलो!”किया है, उन्होंने मुझे। मोटी शब्द मेरी उन सारी रंगीन यादों को ताज़ा कर देता है, जो मुझे रचना में कहीं ढूँढने से भी नहीं मिलती।
मेरी यादों के गाँव में एक सबसे  सुनहरा पन्ना मेरी ननीहाल का आता है। मन फिर से हरा-भरा हो जाता है, जब में फ़िर से कहीं वही फ्रॉक पहनकर अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर  पहुँच जाती हूँ।  सच!बड़ा मज़ा आया करता था जब हम बचपन में अपनी नानी-नाना के घर जाया करते थे। माँ अपने घर में सबसे बड़ी बेटी होने के कारण सबकी लाडली थीं, सो हम बच्चे भी सबके लाड़ले और चहेते थे। मेरी नानी भोजन बहुत ही स्वादिष्ट बनाया करतीं थीं, नानी का नाम लेते ही उनके हाथ के भोजन की खुशबू  रोम-रोम में फेल जाती है, और उन्हीं पुराने स्वादों में मन कहीं खोकर रह जाता है। अपनी नानी का हाथ पकड़कर कर खेतों में जाना और बारिश आने से पहले नानी की धोती पकड़कर ख़ड़े होकर मोर को नाचते देखना कभी नहीं भुला सकती मैं। मैंने अपने यादों के सुनहरे पलों में अपने नाना-नानी की यादों को एक ख़ास पन्ने में कैद कर लिया है,जब भी मुझे मेरा ननिहाल याद आता है, तो मैं अपने सुनहरे पलों की अपनी डायरी में से इस ख़ास पन्ने को खोल लेती हूँ। मेरी नानी के गाँव में मौसम गर्मियों में भी बहुत सुहाना रहता था,शिमला का आनन्द लिया करते थे हम अपनी नानी के यहाँ। वो नानी का चूल्हे पर खाना बनाना और माँ के साथ हम सब का चटखारे लेकर खाना ,रात को लगे छत्त पर बिस्तर में अपनी नानी के गले में हाथ डालकर सोना,इन सारे सुनहरे पलों की तुलना मैं अपने जीवन के और किसी भी पल से कभी नहीं कर सकती। देखते ही देखते न जाने आँखों के आगे से मेरी ननिहाल का वो प्यारा सा वो फैमिली फ़ोटो फ्रेम कहीं खो गया, और मेरे इन सुनहरे पलों में कैद होकर रह गया है।
कॉलेज लाइफ भी मेरी बहुत मस्त और अच्छी रही है, खूब मस्ती लेते थे हम सहोलियो के साथ,पढ़ना किसको होता था। खूब पिक्चरें देखीं थीं हमने  अपनी कॉलेज लाइफ में, वो कहते हैं न बंक मार के। अरे! हाँ!उस ज़माने में हमारे कॉलेज का नाम हुआ करता था, दादागिरी चलती थी, हमारे कॉलेज की। इसी दादागिरी के कारण लोकल बस वाले हमारे कॉलेज के स्टूडेंट्स से किराया नहीं लिया करते थे, स्टाफ़ चलता था हमारा। कसम से बड़ा मजा आता था, बस कंडक्टर के आते ही ज़रा सा”सीस”कर दिया करते थे, आगे की लाइन वो खुद ही पूरी कर दिया करता था,कहता था,”स्टाफ”ठीक है,हँसी आ जाया करती थी। हमारे कॉलेज की तरह ही दिल्ली के और भी बहुत कॉलेजों के स्टाफ चला करते थे। इस स्टाफ को लेकर एक मज़ेदार किस्सा याद आ रहा है, एक बार मैं और मेरी सहेली बस में कहीं से घूम -फिर कर लौट रहे थे, कि अचानक कन्डक्टर हमारी सीट पर आ खड़ा हुआ,और टिकट की माँग करने लगा था,बस!फिर क्या था, फुल मस्ती सूझी मुझे और मेरी सहेली को, हमनें मस्ती भरे मूड में किसी दूसरे कॉलेज का नाम ले डाला था। आप सभी की जानकारी के लिए बता देना ज़रूरी समझती हूँ, कि मेरे कॉलेज का नाम मोतीलाल नेहरू था, बस कंडक्टर के आगे मैने और मेरी सहेली ने जो नाम लिया था…वह था…आत्मा राम सनातन धर्म जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय का ही एक कॉलेज है, और इस कॉलेज का भी स्टाफ चलता था। अब हुआ यूँ, कि जैसे ही हमने आत्मा राम सन्तान धर्म कॉलेज का नाम लिया,कंडक्टर ने हम सहेलियों से हमारे आइडेंटिटी कार्ड की डिमांड कर दी,बस!फिर क्या था, थमा दिया अपना identity card कंडक्टर को…मज़े की बात तो यह थी, की कार्ड पर सब कुछ अंग्रेजी में छपा था, और भी मज़ा तो तब आया था जब कंडक्टर महाराज ने ज़ोर से पढ़ना शुरू किया था”आत्मा राम!”वो भी ध्यान से हँसी न रुकी थी हमारी। खूब चलाया  था स्टाफ़ उस दिन। बहुत मस्ती भरे और सुनहरे पल थे, मेरे बचपन के।
जैसा कि मैं पहले ही कह चुकी हूँ, भोजन खाने की मैं बहुत शौकीन रही हूँ, मज़े की बात तो  यहाँ भी यह है, की अपना स्कूल टिफ़िन भी ख़त्म कर लिया करती थी, और स्कूल कैंटीन में भी खाने चली जाया करती थी। और इसके अलावा एक और मज़े  की बात यह है, कि अपने भाईयों के टिफ़िन में जो बचता था, वो भी घर आकर निपटा ही लिया करती थी, माँ जो टेस्टी खाना बनाकर रखती थीं, वो तो मेरा बोनस हुआ करता था। रह गए न हैरान आप सब ,तभी मित्रों मेरा नाम मोटी पड़ा हुआ था,जिस नाम से आज भी मुझे बेहद प्यार है। याद आता है, मेरा छोटा भाई घर आकर अक्सर माँ से कहा करता था”मम्मीजी, जब भी स्वीटी को देखता हूँ या तो स्कूल कैंटीन में जा रही होती है, या फ़िर कैंटीन से वापिस आ रही होती है”। इस बात पर मेरी माँ की और सभी परिवारजनों की हँसी न रूकती थी। माँ प्यार से जवाब में कह दिया करती थीं”खाने-पीने दे कोई बात नहीं, लड़कियाँ तो माँ-बाप के राज़ में थोड़ा मोटी ही अच्छी लगती हैं”। आज भी मुझे जब अपनी माँ के यह कहे हुए शब्द याद आते हैं, तो फ़िर से उनकी वही स्वीटी बनकर अपनी माँ की गोद में लौट जाती हूँ, पर सच कहूँ तो फिर कभी वापिस लौटकर नहीं आना चाहती। पर बीते हुए पल और लम्हे इंसान की ज़िंदगी में कभी लौटकर नहीं आते..जो कि एक अटल सत्य है, पर मुझे बिल्कुल नहीं भाता है,यह सत्य। काश!परमात्मा ने ऐसी कोई रेलगाड़ी बनाई होती जिसमें बैठकर हम अपने बचपन वाले स्टेशन पर वापिस जा सकते, और माँ-बापू के उसी लाड़ का आनन्द उठा सकते।
खैर!अपने खाना खाने का चर्चा तो खूब किया आप सभी मित्रों से,पर खाना बनाने में भी बेहद रुची रखती हूँ,मैं बचपन से। ज़्यादातर हर प्रकार का भोजन बना लेती हूँ, और मेरे हाथ का बना हुआ भोजन ज़्यादातर सभी पसन्द करते हैं।
‌इसी तरह मेरी ज़िंदगी के बचपन वाले पन्ने के वो सुनहरे पल बीत गए …मैं, स्वीटी और मोटी से कब रचना बनती चली गई पता ही नहीं चला। पर एक खुवाईश थोड़ी सी  रह गयी मेरे मन में.. कि अगर परमात्मा ने मुझे दोबारा स्वीटी का जन्म दिया तो थोड़ी सी अपने आप में तब्दीली करके अपनी खुद की पसन्द की रचना ज़रूर बनकर देखना चाहूंगी मैं, और फ़िर से अपनी ज़िंदगी के सुनहरे  पल वाले पन्ने पर आप सभी मित्रों को आमंत्रित करूँगी।

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