” इधर आओ! लाओ..! ठीक से बाजू कर दूं ! तुम्हारी!”।
स्वेटर की बाजू ठीक करने के बाद, मेरी कानू हमेशा की तरह खेल में वयस्त हो गयी थी। और थोड़ी देर बाद..
” अरे! पागल हो गयी हो! क्या काना.. यह क्या किया तुमनें! बाजू में से हाथ निकाल कर, तुमनें स्वेटर में छेद कर हाथ बाहर निकाल लिए।
हद ही कर दी थी.. कानू ने शैतानी की! बजाय अपने हाथ स्वेटर की बाजू में डालने के, मैडम ने दो छेद बना.. उसमें हाथ डाल-डाल कर पूरा स्वेटर ही ख़राब कर दिया था।
वैसे ऐसे स्वेटर पहन भी प्यारी लग रही थी.. कानू!
बड़ा स्वेटर था, बच्चों का पुराना.. पर सुई-धागे से मैने उसे कानू के नाप का कर दिया था।
थोड़े दिन तो आराम से नपाने के स्वेटर में घूमी थी.. कानू फ़िर खेल-कूद में सलाई उधड़ गई, और कानू के स्वेटर ने अब छोटी सी मैक्सी का रूप ले लिया था।
इस लाल रंग के प्यारी मैक्सी रूपी स्वेटर में दोनों बाजू लटका और छेदों में से बाजू निकाल, खेलती-कूदती लगती बड़ी प्यारी थी, मेरी कानू।
बच्चों से हज़ार बार कहा था,” इधर-उधर जाते रहते हो! कहीं कोई सुन्दर से कानू के नाप का प्यारा सा स्वेटर दिखे, तो लेते आना!”।
पर बच्चों ने हमें यह कहकर टाल दिया था..
” अरे! रहने दो! कुत्ता ही तो है! ऐसे ही पुराने फ़टे स्वेटर में ही ठीक लगती है!”।
पर प्यारी कानू ने बच्चों की बात सुन भी ली थी.. और शायद समझ भी गयी थी।
बहुत बुरी लगी थी.. कानू को अपने बहन-भाइयों की यह बात..
इसलिए, शायद पुराने स्वेटर की यह हालत कर..
हमसे कहना चाह रही थी.
” हमें क्यों नहीं दिलाना चाहतीं! तुम नया स्वेटर माँ! क्या तुम्हें मुझसे दीदी-भइया वाला प्यार नहीं है!।”
कानू की आँखों के इस सवाल ने कानू पर और ज़्यादा लाड़ जताने पर मजबूर कर दिया था..
और में ख़ुद जाकर अपनी प्यारी कानू के लिए.. गुलाबी रंग का सुंदर स्वेटर खरीद लाई थी।