यह अंगीठी शब्द.. मेरे मन में बढ़ती हुई.. ठंड की वजह से नहीं आया है.. बल्कि, इस सर्दी के मौसम में पोस्ट किए हुए.. इस अंगीठी के चित्र ने उन कड़क रोटियों की याद दिलाई है.. जो हम अंगीठी पर दोबारा सेक कर खाया करते थे।
वो दोबारा से कड़क कर-कर रोटियाँ खाने का मज़ा ही कुछ और हुआ करता था।
पिताजी फौज में थे.. फील्ड एरिया में किचन allowed नहीं होता था.. इसलिए हमारा खाना अफसर मेस से ही आया करता था।
रात को डिनर टाइम से पहले भइया.. होटकैस रख चले जाते थे.. रोटियाँ गर्म तो हुआ, करतीं थीं.. गर्मी में तो ऐसे ही चलता था, पर सर्दी में उन गर्म रोटियों को कमरे में अंगीठी रख, माँ और पिताजी हम बच्चों को कड़क कर-कर देते चलते थे.. अंगीठी पर रोटियां भी कड़क होती चलती थीं.. और हमारा कमरा भी गर्म हो जाया करता था।
जीवन के यादों के पन्ने पर कुछ मज़े ऐसे होते हैं.. जिनकी गर्माहट, कड़कपन और प्यार कभी ऐसे ही अंगीठी पर सिकी रोटियों की तरह कम नहीं होता।