” अब यह साल तो समझो निकल ही गया! अगले साल दुकान से अच्छी सी क्वालिटी की ऊन खरीद कर.. किसी बुनने वाली से अच्छा सा स्वेटर बनवाऊंगी”।

बिटिया ने मुझसे कहा था।

” हाँ! वही सही रहेगा.. हाथ के बने स्वेटरों में ठंड नहीं लगती है”।

मैने कहा था,  और..

” वर्धमान वगरैह में अच्छे colours आते हैं”।

ऊन के ब्रैंड का suggestion देते ही.. आँखों के आगे सुन्दर रंगों के ऊन के गोले घूम गए थे..  

सर्दियां शुरू होने से पहले.. हमारी सबकी पसन्द के रंगों में घर मे ऊन के गोले.. वर्धमान के आ जाया करते थे.. 

और माँ बढ़िया डिज़ाइन डाल-डाल कर सबकी पसन्द के स्वेटर तैयार कर दिया करतीं थीं।

मुझे आज भी अपनी माँ की वो सुन्दर हरे रंग की टोकरी याद है.. जिसमें माँ का ऊन का गोला होता था.. और हाथ में स्लाईआं मशीन की तरह से काम करते हुए.. हमारे लिये स्वेटर बना रहीं होतीं थीं।

बहुत अच्छा हाथ था.. उनका बुनाई में।

उसके बाद बहुत ज़माना बदला.. घर की मेहनत छोड़.. रैडी मेड.. स्वेटर अच्छे लगने लगे थे।

और फैशन भी उन्हीं का चल गया था.. पर उन ऊन के गोलों के वो प्यारे रंग, उन में छुपी.. ममता और प्यार रैडी मेड में कहाँ था।

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